6.8.08

ऑह फादर व्हाट एन आइडिया!

आप किसी भी फिल्म में देख लीजिए. यदि स्कूल दिखानी हो तो 99.99% सम्भावना है कि वह किसी फादर अथवा सिस्टर (पढें मिशनरी) की होगी. बीते जमाने के इचक दाना बिचक दाना को भूल जाइए, नया जमाना फादर्स का है.

और यदि सिनेमा को जिंदगी का आइना माना जाए तो इससे यही सिद्ध होता है कि भारत में यदि स्कूले हैं तो बस ईसाई मिशनरियों की हैं वरना नहीं है. स्कूल हो तो फादर की वरना ना हो!

और हमारे सिनेमा और विज्ञापन जगत के लोगों के आइडियाज़ तो देखिए, एक से बढकर एक हैं. यकीन ना हों तो आइडिया सेल्यूलर का नया विज्ञापन केम्पेन देख लें. अभिषेक बच्चन “फादर” इस बात से दुखी हो जाते हैं कि एक ग्रामीण की बेटी को “शहरी” प्राध्यापक स्कूल मे दाखिला नहीं देता. तो अब इसका क्या ईलाज किया जाए?

बच्चों को अंग्रेजी तो पढानी ही है कैसे भी करके. तो फादर एक अनोखा आइडिया निकालते हैं. मोबाइल पढाई का ऐसा नायाब तरीका जिसमे ना ब्लेकबॉर्ड की जरूरत होगी, ना शिक्षक की, ना वर्ग की, ना कमरे की, ना धूप की, ना छाँव की. जरूरत होगी आइडिया की. बस मोबाइल लगाओ शिक्षा पाओ.

और फिर अपने दादाजी को “ऑह गोड थेंक्स फोर द फूड’ सिखाओ. मुझे आश्चर्य है बजरंगियों ने यह विज्ञापन कैसे नहीं देखा और देखा तो अब तक हुडदंग कैसे नहीं मचाया.

खैर, इस मुहिम के अंत मे होगा यह कि “हो हो हो.. हो हो हो..’ करते हमारे देश के भविष्य, एक जवान फादर की बदौलत मोबाइल शिक्षित हो जाएँगे और अंग्रेजी में रास्ता बताएँगे, और ‘ऑह गोड थेंक्स फोर द फूड” गाएँगे.

पता नहीं कौन किसका विज्ञापन कर रहा है.

सचमुच, व्हाट एन आइडिया सर जी!

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5 Comments:

Blogger Unknown said...

पंकज भाय, एटलो गुस्सा ठीक नथी… के तमने पता नथी कि "भारत भाज भेरी पूअर लाइक सूअर एण्ड ओनली फ़ादर टाट हिम इंग्लिस", नो इंग्लिस नो कल्चर, नो कल्चर-नो सेक्युलरिझम, नो, नो, नो, वेरी बेड पंकज भाय… "ख्यों आलोछाना खारते हांय ये…" महारानी की जय बोलो और खुश रहो, देखो पासवान, लालू और मुलायम कैसे खुश हैं… सीखते नहीं हैं आप कुछ भी…

11:55 AM, August 06, 2008  
Blogger दिनेशराय द्विवेदी said...

हम हिन्दी वालों की कमजोरी है। हम उस स्तर के विद्यालय स्थापित ही नहीं करते।

4:18 PM, August 06, 2008  
Blogger राज भाटिय़ा said...

पंकज भाई, हमे आदत हे इन अग्रेजॊ के पीछे पीछे भागने की, इन की हर गन्दी आदत हमे अच्छी लगती हे,अगर हमारे वस मे हो तो हम अपनी काली ओर भुरी चमडी भी बदल दे, अपने काले ओर भुरे बाप को भी बदल दे,
पता नही क्यो हम आजाद हो कर भी उस आजादी को इज्जत नही दे पा रहे, ओर हर बात मे हमे अपनी चीज घटिया लगती हे, बाकी सुरॆश जी ने जो कहा उस से सहमत हू. धन्यवाद

4:45 PM, August 06, 2008  
Blogger Udan Tashtari said...

आप तो बहुत गुस्से वाले शांति सेठ हैं-हर बात पर गुस्सा हो जाते हो. :)

6:45 PM, August 06, 2008  
Blogger eSwami said...

दिनेशजी की बात में दम है! वैसे शायद दोनो बातें हैं अगर हिंदी विद्यालय अच्छा पढाए भी और अंग्रेजी वालों जैसी फ़ीस मांगे तो भी कोई भाव नहीं देगा. उच्च वर्ग को फ़ादर ही होना.

8:15 PM, August 06, 2008  

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