27.7.06

क्या ऐसा हो सकता है?

कल मैने गुजराती दैनिक "सन्देश" में एक आलेख पढा. अभी कुछ दिनों पहले श्रीनगर में सैलानीयों पर ग्रेनेड हमले हुए थे तब एक गुजराती पर्यटक उसी समय एक शिकारे पर भी था. हमले के तुरंत बाद उसने शिकारे के मालिक तारिक अनवर से बातचीत की. तारीक ने जो कुछ कहा उसका सारांश:

तारीक:
  • ये आंतकवादी नही है. जिन्हे आप आंतकवादी कहते हैं वे हमारे लिए मुजाहीद हैं यानि कि स्वतंत्रता सैनिक.
  • ये हमले इसलिए होते हैं क्योंकि भारतीय फौज यहाँ है. हमें भारतीय फौज से नफरत है. कोई कश्मीरी इन लोगों से बात नहीं करता.
  • हमें आज़ादी चाहिए. भारत ने हमें गुलाम बना रखा है.
  • हमने हिन्दुओं को नहीं भगाया. वे लोग मुज़ाहीदों से डरकर खुद ही भाग गए. (जब पुछा गया कश्मीरी पंडितों को क्यों निकाल दिया गया?)
  • मुशर्रफ चालाक है. मैं तो उसे डरपोक समझता था पर वो तो शेर निकला.
  • वाजपेयी को हम शेरे हिन्द समझते थे. पर वो तो मुशर्रफ की एक धमकी से ही बिल्ली बन गया.
  • मुम्बई धमाकों के बाद टीवी मे मनमोहन सिंह को देखा. कैसे काम्प रहे थे. (हंसते हुए) उनसे ज्यादा बहादूर तो हमारे कश्मीरी हिजडे हैं.
  • हमें आजाद मुल्क चाहिए. आजाद कश्मीर.

ये पुरा आधा पन्ने का साक्षात्कार है. यह कितना सच है यह तो अखबार के सम्पादक ही जानें. पर मन में सवाल जरूर उठते हैं कि क्या वास्तव में हमें कश्मीर के बारे में छलावे में रखा जाता है. क्या हम अपने नेताओं से तथा मिडिया से आधी अधुरी जानकारी ही पाते हैं.

भारत के करदाताओं के अरबों रूपये हर साल कश्मीर को दिए जाते हैं.

आख़िर कश्मीरी चाहते क्या हैं?

25.7.06

एक चिट्ठी हिमेश रेशमीया के नाम

पहले एक चिट्ठी अपने स्पाइडरमेन को लिखी थी. उसका नतीजा यह हुआ कि जनाब मार्केट से गायब ही हो गए. अब एक चिट्ठी अपने हिमेश रेशमी-या को भी लिख रहा हुँ. ना भई, मैरे ईरादे सो फिसदी नेक हैं.


प्रिय हेमु,

देखो बुरा मत मानना, हेमु कह रहा हुँ. भई प्यार मोहब्बत भी कोई चीज होती है ना. जब लाखों लोग तुम्हारे दिवाने हैं तो मैने भी तुमको प्यार से नवाज़ना ही श्रेयकर समझा. और सुनाओ क्या हाल चाल हैं? अब यह पुछना कि क्या सब कुशल मंगल है बेमानी होगा. हँसोगे तुम, क्यों? कहोगे, भैया यह सवाल तो तुम अनु मलिक से पुछो. ऐसा लगता है दुकान ही उठ गई. अभी तो तुम छाये हुए हो. जब तब बरसते ही रहते हो. कभी शितल बरखा देते कभी बिजलीयाँ कडकाते दिख ही जाते हो.

पर भैया यह क्या? आजकल ये क्या धुनें दे रहे हो? भई पता है हमें कि निर्माताओं की लाइन जो है वो लम्बी ही लम्बी होती जा रही है. और भई भगवान झुठ ना बुलवाए, घर आए ग्राहक को गाली कौन दे? पर भाई, इत्ती सारी फिल्मे तो साईन कर ली पर उत्ती ही सारी धुनें कहाँ से लाओगे? अब तुम क्या करोगे कि किसी धुन का सिर और किसी और धुन की धड लेकर श्री गणेश करने तो जाओगे पर अंत में कोई भस्मासुर सुर बना डालोगे. वही तो करते हो. अब देखो ना, वो याद है वो गाना.. क्या कहते हैं-

दिल की सुर्ख दिवारों पे... नाम है तेरा तेरा.. नाम तेरा तेरा..

हाँ, गाना बढिया था. धुन भी बढिया थी. पर यह क्या!! अभी अभी एक गाना सुना. पिक्चर है “एंथोनी कौन है”? कोई भी हो, पर यह कहाँ पुछा लोगों ने कि “हिमेश रेशमीया कौन है”? नहीं पुछा ना! फिर क्यों अपनी छाप युँ इस तरह छोडे जाते हो:

इश्क तेरा तेरा... इश्क तेरा तेरा...

ल्लो. यह भी कोई बात हुई. एक ही धुन टिका दी. और लोग टिक लिए.

भाई कुछ तो मौलिकता, नवीनता लाओ. आजकल तो ऐसा लागे है, जैसे तुम किसी गाने का बस पिछवाडा पकड के धोबी पछाड किए जाते हो. कभी नाम तेरा तेरा, कभी इश्क तेरा तेरा, कभी आई लव यु सय्योणी.. आइ लव यु ओ सय्योणी, कभी आहिस्ता आहिस्ता. बस एक ही इस्टाईल. पकडो पिछवाडा और दो पछाड, दो पछाड.

वो तुम ही थे ना दोस्त जिसने, वाह क्या धुनें दी थी “तेरे नाम” में. एक से बढकर एक. पर तब हेमुभैया ने टोपी नहीं पहनी थी. अब जिम्मेदारी बढ गई है. तब केवल हाथ में हारमोनियम था. अब मुँह के आगे माईक भी है. पर भैया टोपी पहने लोगों को टोपी कब तक पहनाओगे? टोपी थोडी देर के लिए उतारो और सोचो. सोचो. कुछ तो नया लाओ मैरे भाई. एक और तेरे नाम हो जाए.

शेष शुभ.

तुम्हारा,
पंकज बेंगाणी

15.7.06

अनुगुँज 21 :: एक दो अपने भी जोक्स टीका लो

अपन ने कभी अनुगुँज मे हिस्सा लिया ही नही. Akshargram Anugunj
कहाँ से लें, विषय ही औकात के बाहर के होते थे. ये तो अभी भला हो रवि भाईसाहेब का कि औकात वाली बात कह दी और मैरे भाईसाब बोले तु भी लिख दे. तो लो ये चार मैरे चुटकुले भी टीका लो.


  • एक बार मैरे सागर भाईसा साइबर कैफे में बैठे बाहर सडक की ओर देख रहे थे. अचानक उन्हे सामने से आता एक सुमो पहलवान दिखा. इत्ता बडा आदमी तो उन्होने जिन्दगी में कभी देखा ही नही था. जैसे ही वो पास आया, भाईसा पुछ बैठे, “भाई तु कौन?” सुमो पहलवान बोला ,”सुमो पहलवान” और चला गया.

    उसके पीछे पीछे सुमो पहलवान की बीवी निकली. कद में थोडी छोटी थी पर माशाअल्ला वो भी खाते पीते घर की हट्टी कट्टी थी. भाइसा तो चौंक गए, बोले “अरे तु कौन?” वो बोली,”सुमो पहलवान” और चली गई.

    इतने उनका बच्चा पीछे पीछे आया. कद में तो छोटा पर था सांड जैसा.
    भाईसा बोले,’अरे भैया तु कौन?” वो बोला,”सुमो पहलवान” और चला गया.

    भाईसा हैरत मे तब पड गए जब उनके पीछे पीछे डेढ फुटिया बच्चा निकला. थोडा मनचला था. भाईसा को ठोकर देता निकल गया. भाईसा धडाम से गिरे. चीख निकली और भाईसा बोले,”हे भगवान, अरे बाबा तु कौन?” बच्चा खी खी करता बोला,”सुमो पहलवान. और आप कौन?”

    भाईसा कराहते हुए बोले,”हुँ तो मै भी सुमो पहलवान. आजकल थोडा बिमार चल रहा हुँ.”


  • डॉ. सुनिल के पास एक आदमी भागा भागा आया. बोला,” डोकटर साहेब, देखो मेरी बीवी को क्या हो गया है. कब से चिल्लम चिल्ली कर रही है.”

    डॉक्टर बोले,”कोई गल्ल नहीं, अन्दर इनकी जाँच करते हैं” थोडी देर बाद डॉक्टर बाहर आए और बोले,”नर्स जल्दी से पेचकश दो”. आदमी डर गया – ओये यह क्या?

    थोडी देर बाद डॉक्टर साहेब फिर बाहर आए और बोले,”धत्त तेरे कि पत्ता नही कै हो गया है, नर्स जल्दी से हथौडा दो.” अब तो बेचारा आदमी बुरी तरह डर गया. बोला,”मालिक मेरी बीवी को हुआ क्या है?”

    डॉक्टर साहेब बोले,” अरे बापु चेक तो करने दो. यहाँ तो मेरी बेग ही नही खुल रही है.”


  • मेरा दोस्त रवि कामदार एक शुक्रवार को अपनी नई नवेली गर्लफ्रेंड को लेकर एक ज्वैलर के शोरूम में गया और कहा,”भईया, मेरी स्वीट हार्ट के लिए एक सुन्दर सी अंगुठी दिखाओ.”

    सेल्समेन ने एक अंगुठी निकाली और कहा,”ये देखिए सर, कितनी सुन्दर है. सिर्फ 5000 रूपये.” रवि बोला, ”बस! अरे यार थोडे ढंग की दिखाओ”

    सेल्समेन खुश हो गया. एक और अंगुठी निकाली और बोला,”ये देखिए सर. एकदम आपके क्लास की. किमंत 25000 रूपये.” रवि बोला,”बस यह ठीक है. ये लिजीए 25000 का चेक. आप सोमवार को बेंक में एकबार चेक करवा लेना. हम अंगुठी फिर ले जाएंगे.”

    सोमवार को सेल्समेन ने रवि को फोन किया,”सरजी, आपकी बेंक में तो बेलेंस ही नही है!”
    रवि बोला, ”कोई बात नहीं, लेकिन मैरा विकेंड बडा मजेदार गुजरा”


  • एकबार मैं, अमित और संजयभाई दुनिया से कल्टी हो लिए और पहुँच गए स्वर्ग नरक जंक्शन पर. वहाँ बहीखाता लिए चित्रगुप्त भिड गया.

    चित्रगुप्त,”चलो अपना अपना नाम बोलो”
    अमित,”नही बताएंगे. पैचान कौन?”
    चित्रगुप्त,”अच्छा ये बात है, तो बताओ वो कौन सी प्रोग्रामिंग लेंग्वेज है जो एक पेय भी है?” अमित हँसा और बोला,”लो कर लो गल्ल. ए तो जावा है.”
    चित्रगुप्त बोला,”वाह वाह आप तो अमित गुप्ता हैं, आओ आओ. अच्छा अब आप बताओ सिंगापुर पहले क्या था?”
    अब संजयभाई बोले,”भईया, सिँहपुर था”.
    चित्रगुप्त झट पहचान गया. बोला,”अहोभाग्य संजयभाई आओ आओ.”

    अब मै बचा. शक्ल से ही झंडु बाम लगता हुँ.
    चित्रगुप्त बोला,”तेरे लिए इजी लेता हुँ. बोल भारत के प्रधानमंत्री कौन.”
    मैं बोखलाया, सर खुजाया, मुहँ बनाया, गाल सहलाया और बोला,”सरदारजी”

    चित्रगुप्त: ”ह्म्म.. पंकज बेंगाणी. आजा इधर साइड में. नर्क की लाइन में लग जा”

13.7.06

डरपोक देश : भ्रष्ट राजा : निष्क्रिय प्रजा

जब से मुम्बई में फिर से धमाके हुए हैं, हम सब अन्दर तक हिल गए हैं. परिचर्चा में थ्रेड पर थ्रेड खुलते जा रहे हैं. कौई सेक्युलरों को गालीयाँ दे रहा है, कोई मुसलमानों की वकालत कर रहा है. कोई कहता है आंतकवादीयों का धर्म नहीं होता, कोई कहता है धर्म ही आंतकवाद फैला रहा है. विचार अनेक, मत अनेक, सोच अनेक, पर चोट एक. सब घायल हैं. क्यों, घायल हैं?
  • डरपोक देश:

    हमारा महान भारत देश क्यों डरपोक लगता है? यह कोई आज की बात नही है. सदीयों से चला आ रहा है. कभी कोई महमुद घोरी आता है, सोमनाथ लुट जाता है. कोई रोकने वाला नहीं. भगवान के रखवाले सोचते हैं, भगवान रक्षा कर लेंगे. खुशफहमी मे रहते हैं, और कोई घोरी भगवान को लूट कर ले जाता है. और वो रूकता नही, बार बार आता है. बार बार लूटता है. अब कोई खुशफहमी नही, पर कोई निति भी नही. कोई सुरक्षा भी नही.

    कभी मुगल आते हैं, कभी अंग्रेज, कभी पुर्तगाली, गुलाम बना लेते हैं, लुट कर ले जाते हैं. क्यों? क्योंकि हममें ही एकता नहीं थी, नहीं है. तभी तो हम सोफ्ट टार्गेट बने हुए थे, बने हुए हैं.

    चलिए ज्यादा दूर मत जाइए. बांग्लादेश से आते थोकबन्द लोग तो दिख रहे हैं. एक भिखारी देश के सरदर्द भारत के लिए नासूर बनते जा रहे हैं. पर उनके वोटों पर पलने वाली सरकार को कुछ नही दिखता. दिखेगा भी नहीं, जब तक यह नासूर घाव नही बन जाएगा. पर तब तक बहुत देर हो जाएगी.

    कुछ साल पहले अखबारों में तस्वीरे छपी थी कि कैसे बांग्लादेश राइफल के जवान भारतीय जवानों को मारकर सुअरों की तरह लटका कर ले जा रहे थे. क्या किया था भारत ने. वस्तुत: प्रत्यक्ष तौर पर कुछ नही. जब यह अदना सा देश इतनी हिम्मत कर सकता है तो दुसरों का कहना ही क्या?

    कारगील युद्ध याद है. कितनी बडी चुक. एक ऐसे देश पर भरोसा करके पैरों पर कुल्हाडी मारी जिसकी दोस्ती का "स्वर्णीम इतिहास" काफी कुछ कह जाता है. और फिर हाथ आया मौका भी गवाँ दिया.

    रिपोर्टस कहती है, भारत सरकार ने एल.ओ.सी. पार नही कि, क्योंकि डर था कि परवेज़ मुशर्रफ परमाणु हथियारों का विकल्प अपना सकते हैं. "डर" था. हमको डर था. पाकिस्तान को क्यों नही. क्या भारत के पास परमाणु हथियार नहीं हैं. फिर भी डर था. और सैनिकों को मरने दिया, पर एल. ओ. सी. पार नही कि. कम से कम सीमा पार के आंतकवादी शिविर ही नष्ट कर देते. एक बार का डर तो बैठता. पर मौका चुक गया. क्यों? क्योंकि सरकार को डर था.

    आज ही आज यह डर था! इनसे तो इन्दिरा गान्धी अच्छी थी. पाकिस्तान के दो टुकडे तो कर दिए. कभी सोचता हुँ, काश कारगील के दौरान इन्दिरा प्रधानमंत्री होती.

    हम हमेंशा शांति शांति का राग अलापते रहते हैं, और पडोसी लुट कर ले जाते हैं. सब ठीक है, पर हद से ज्यादा नही. नेहरू भी शांति का राग अलापते थे और चीन जमीन ले गया. क्या मिला हमें?

    आंतकवादी प्लेन अपहरण कर ले जाते हैं. दिल्ली उतरते हैं, अमृतसर उतरते हैं. और हम गफलत में रहते हैं कि क्या करें? सी.सी.एस. की मिटिंग होगी, निर्णय होगा, एन.एस.जी. को बुलाएंगे कि नही बुलाएंगे?, सोचते रहेंगे और वो उड जाएंगे. लाहोर से रिचार्ज होकर कन्धार पहुँच जाएंगे, और सरकार क्या करेगी? फिर से डर. अब देश के लोगों का डर. हमारे विदेश मंत्री आंतकवादीयों को सी ऑफ करने जाएंगे. और वो टोपीवाला अज़हर मसुद तीन दिन बाद ही पाकिस्तान मे दिखेगा. कोई बता सकता है, उसके बाद उसके इशारों पर कितने लोग मरे हैं?

    क्यों? आखिर क्यों. भारत क्यों डरपोक लगता है?

जारी........

10.7.06

दिल्ली चार साल बाद चार दिन

कुछ दिन पहले मैरा दिल्ली जाना हुआ. चार साल बाद जा रहा था. राजधानी के बदले स्वरूप को देखने की तथा अपने ब्लोगर बन्धुओं को मिलने की अदम्य ईच्छा के साथ में ट्रेन में सवार हुआ.


हालाँकि मैरा दौरा अतिव्यस्त रहने वाला था. फिर भी मैने तय कर रखा था कि जो भी हो तीन चीजें तो करनी ही है.

1. मेट्रो में सफर करना
2. अक्षरधाम मन्दिर जाना
3. ब्लोगर बन्धुजनों से मिलना

दिल्ली पँहुचते ही शाम को अमित से मिला. वो भी जल्दी में था, मै भी. आगे शांति से मिलने का वादा करके वो निकल लिया. फिर दो दिन ससुराल पक्ष की शादी, मैरे क्लाइंट से मिलने में निकले गए. इस बीच मेट्रो में काफी सफर किया.

पहले दिन पश्चीम विहार से दरिया गंज बस में गया, और आग झरती गर्मी के बीच खुद को रोस्टेटे पापड सा पाया. डेढ घंटे के सफर के बाद जब एक क्लाइंट के पास पँहुचा तो तपेदिक का मरीज लग रहा था. वो साहब बोले "कैसे आए?" मैने कहा "बस से". वो मुस्कुराए, मन ही मन बुदबुदाए - अजीब बेवकुफ इंसान है. बोले "मेट्रो से आ जाते". मैने कहा "रूट पता नही था". वो बोले "अभी बता देते हैं". वापसी में ऑटो फिर मेट्रो फिर ऑटो से घर आया. जाते समय लगे थे डेढ घंटे आते समय लगे 20 मिनट. जाते समय लगे थे 11 रूपये, आते समय लगे 90 रूपये. पर फिर भी खुश था. सुखी था.

आगे के सारे सफर ऑटो फिर मेट्रो फिर ऑटो से ही किए. रास्ते में बस में सवार लोगों को देखता और कहता "अजीब बेवकुफ हैं" फिर सोचता भाई 11 रू. और 90 रू. में काफी फर्क है.

मंगलवार को जाते जाते सभी ब्लोगर बन्धुओं से दुआ सलाम भी कर ली.

तो कैसी लगी दिल्ली भाईसाहब?

क्या कहें. अहमदाबाद से दो गुना बडे इस महानगर की लीला निराली है. क्या फ्लाई ओवर हैं. दिल बाग बाग हो जाए. ऐसे घुमावदार फ्लाई ओवर कहीं ना देखे. हमारे यहाँ तो एक अदने से फ्लाई ओवर का उदघाटन करना हो तो भी अडवाणी जी उडते चले आएँ, और वहाँ तो गली गली में फ्लाई ओवर ही फ्लाई ओवर है.



क्या मेट्रो ट्रेन है. अचम्भीत हुआ बस देखे जाता हुँ. राजीव चौक का स्टेशन तो जैसे नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से भी बडा है. बस अब इंतजार है कब अहमदाबाद में भी मेट्रो चले. दो रूट निर्धारीत हो चुके हैं, डिटेल रीपोर्ट बन चुकी है. बस केन्द्र सरकार हरी झंडी दिखा दे. हालाँकि उम्मिद कम है जब तक यु.पी.ए. सरकार है.




क्या अक्षरधाम है. वाह वाह. हमारे अक्षरधाम जितनी तो शायद पार्किंग होगी वहाँ. अद्भूत, आश्चर्य, अनोखा, अपूर्व, आलौकिक, अक्षरधाम.




बहुत तारीफ सुन ली अब ये भी सुनो.

ये क्या चार चार घंटे लाइट ही नही है. एल्लो हमारे यहाँ तो कभी बिजली जाती ही नही. हमे तो पता भी नही लोड शेडिंग क्या होता है.

और यह यमुना है कि नाला है. कभी साबरमती में बहते नर्मदा के पानी को देखा है? :-)

और लोग. तौबा. क्या घटिया स्वभाव है. यार ये लोग इतने चिड चिडे क्यों है. लगे जैसे मार खाकर आए हों. कोई सिधे मूँह बात ही नही करता.


खैर कोई नही. दिल्ली देश का दिल है. सही है ना?

5.7.06

दिल्ली का राजीव चौक और हमारी चौपाल

चौंकते क्यों हो? राजीव चौक यानि कनॉट प्लेस. अब समझ आया. कोंग्रेस के राज़ में देश में सब राजीव, इन्दीरा और सोनिया ही नज़र आएंगे ना?

आज ही लौटा हुँ कर्मभुमि. चार दिन दिल्ली का मेहमान था. मेहमान नवाज़ी के बारे मे तो खैर बाद में लिखुंगा. कल हमारी ब्लोगर मीट थी. अमित ने अपने ब्लोग पर सारा विवरण वैसे तो लिख ही दिया है. साथ ही एक फोटु भी चिपका दी है. अब मैं तो पहचाने में आउंगा ही. क्यों....

कल सुबह जब उठा या उठाया गया तो सर चक्रवात की तरह घुम रहा था. दिल्ली आने के बाद सो ही नही पा रहा था. ये शादी ब्याह आदमी का खुन चुस लेते हैं. खैर किसी तरह उठा तो याद आया आज तो कनॉट प्लेस ... सॉरी.... राजीव चौक जाना है. बन्धुजनों से मिलने. एक मन किया अमित से कह दुँ कि भाई अपनी तो टॆं बोल गई है. मै नही आ पाउंगा. फिर सोचा.. अरे यार मैं ही तो सेलेब्रिटी हुँ. जाना तो पडेगा ही. हा हा हा...

खैर अमित को फोनवा घुमाया. वो आया. हम उसके पीछे लपक लिए और चल दिए नई दिल्ली की ओर. बार बार घडी भी देखते थे. दिमाग में टाइम टेबल बना रहा था. कैसे भी हो 1 बजे तो निकल ही जाना है वापस घर को. भई ट्रेन पकडनी है 3 बजे की.

भरी दुपहरी में लाल होकर कैफेटेरीया पहुँचे तो भाटीयाजी पहुँचे हुए दिखे. :-)

हम बैठे और बतियाए.. गला सुख रहा था तो मैने वेटर से कहा.. भाई पानी पीला दे. उसने कहा "ऑनली मिनरल वॉटर सर". मैने कहा " वही पिला दे, चला लुंगा." मन किया कहुँ भाई ए.सी. भी चला दे. फिर सोचा कहीं असभ्य ना हो जाउँ.

तभी एक आदमी एकदम सामने आकर खडा हो गया. द नेम इज़ दिवान... नीरज दिवान. ग्लेड टु मीट यु. अहोभाग्य हमारे, आप आए.

मुझे लगा उलाहना देंगे. इंडिया टीवी स्टुडीयो क्यों ना आए. पर ना दिया और गर्मी पर हमारा निबन्ध सुनने से बच गए. पर मैरा नोएडा जाने का बहुत मन था. ना जा पाया. शायद फिर कभी.

हमने ब्लोगजगत पर चर्चा की. क्या है, क्यों है, आपने कब लिखना शुरू किया वगैरह वगैरह..

अचानक मैने घडी देखी तो होश उड गए. 1 तो बज गए थे. फिर तो सृजन शिल्पीजी भी आए. एक मित्र भी लाए. अमित ने फोटु शोटु भी खिंची. मै तो जबरदस्ती मुस्कुरा रहा था भाई. अन्दर से तो टेंशन में आ गया था. आज तो ट्रेन छुटी ही छुटी.

फिर अमित के पीछे बैठा. और अमित ने भगाया. मैने रास्ते में उससे कम से कम तीन बार पुछा, यार घरवाली को सिधा स्टेशन ही बुला लुं, अब तो लेट हो जाएगी. पर वो बोलता रहा, कोई गल्ल नहीं.

घर भी पहँच गया, स्टेशन भी और अहमदाबाद भी. सकुशल.

बहुत अच्छा लगा सबसे मिलकर. और सबसे बात कर... सबको जानकर...(जितना भी हो सका)

अमित: एकदम गुलाबजामुन जैसा गोलमटोल और स्वीट. उससे मिलकर लगा ही नही कि पहली बार प्रत्यक्ष मिल रहा हुँ . लगा जैसे बरसों से जानता हुँ. बातुनी बहुत है. वो बोलता है मै सुनता हुँ. एक बोलने में तेज. एक सुनने में.

भाटियाजी: उनको अंकल कहुँ तो शायद बुरा मान जाएँ. शांत और गम्भीर. बहुत कुछ कर गुजरना चाहते हैं. भगवान उनसे इत्तिफाक रखे तो अच्छा.

नीरज दीवान: मैने इनको जैसा पाया, वैसा नही सोचा था. सच्ची. पत्रकार हैं तो दाढी तो होनी चाहिए, थोडे बाल सफेद कर लो... और प्लीज थोडे बुड्ढे तो लगो यार. पर नहीं ये तो लगते ही नहीं. मैने इनकी आंखो में झांक कर देखा. कितने सवाल भरे हैं. पर हर सवाल पुछते नहीं. सोचते हैं पुछुँ, फिर चुप हो जाते हैं. इनकी आँखे बहुत बोलती है. ये हमारे इंसाइक्लोपेडीया हैं. इनका पुरा दोहन होना अभी बाकी है. उकसाइए और दुहते रहीए. :-)

सृजन शिल्पीजी तो एकदम सरकारी बाबु लगते हैं. अच्छी सी स्माइल लेकर घुमते हैं. इन्होनें हमें मिठाई दी. और घरवालों के लिए भी.

बस ऐसी रही मिटिंग और ये थे पात्र. एक मैं भी था. अब अपने बारे में क्या लिखुँ. या क्या क्या लिखुँ. हा हा हा.....