15.8.08

स्वतंत्रता के मायने

देश की स्वतंत्रता को 61 वर्ष हो गए हैं. आज हम अपने आप से यह सवाल पूछ सकते हैं कि क्या हमने स्वतंत्रता के अर्थ को पहचाना है?

क्या विरोध दर्ज करने के लिए हिंसक आंदोलन करने के लिए हम स्वतंत्र है?
क्या कुछ हजार वोट के लिए आम जनता की भावनाओं से खेलने को हम स्वतंत्र हैं?
क्या ऑलम्पिक मे खिलाडियों से अधिक अधिकारियों और उनके परिवार वालों को ले जाने के लिए हम स्वतंत्र हैं?

आखिरी हमारे लिए स्वतंत्रता के मायने क्या हैं?



उपरोक्त सवाल हमने तरकश पर चर्चा में विभाग में पूछे हैं. आप भी इस चर्चा मे भाग ले सकते हैं.

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6.8.08

ऑह फादर व्हाट एन आइडिया!

आप किसी भी फिल्म में देख लीजिए. यदि स्कूल दिखानी हो तो 99.99% सम्भावना है कि वह किसी फादर अथवा सिस्टर (पढें मिशनरी) की होगी. बीते जमाने के इचक दाना बिचक दाना को भूल जाइए, नया जमाना फादर्स का है.

और यदि सिनेमा को जिंदगी का आइना माना जाए तो इससे यही सिद्ध होता है कि भारत में यदि स्कूले हैं तो बस ईसाई मिशनरियों की हैं वरना नहीं है. स्कूल हो तो फादर की वरना ना हो!

और हमारे सिनेमा और विज्ञापन जगत के लोगों के आइडियाज़ तो देखिए, एक से बढकर एक हैं. यकीन ना हों तो आइडिया सेल्यूलर का नया विज्ञापन केम्पेन देख लें. अभिषेक बच्चन “फादर” इस बात से दुखी हो जाते हैं कि एक ग्रामीण की बेटी को “शहरी” प्राध्यापक स्कूल मे दाखिला नहीं देता. तो अब इसका क्या ईलाज किया जाए?

बच्चों को अंग्रेजी तो पढानी ही है कैसे भी करके. तो फादर एक अनोखा आइडिया निकालते हैं. मोबाइल पढाई का ऐसा नायाब तरीका जिसमे ना ब्लेकबॉर्ड की जरूरत होगी, ना शिक्षक की, ना वर्ग की, ना कमरे की, ना धूप की, ना छाँव की. जरूरत होगी आइडिया की. बस मोबाइल लगाओ शिक्षा पाओ.

और फिर अपने दादाजी को “ऑह गोड थेंक्स फोर द फूड’ सिखाओ. मुझे आश्चर्य है बजरंगियों ने यह विज्ञापन कैसे नहीं देखा और देखा तो अब तक हुडदंग कैसे नहीं मचाया.

खैर, इस मुहिम के अंत मे होगा यह कि “हो हो हो.. हो हो हो..’ करते हमारे देश के भविष्य, एक जवान फादर की बदौलत मोबाइल शिक्षित हो जाएँगे और अंग्रेजी में रास्ता बताएँगे, और ‘ऑह गोड थेंक्स फोर द फूड” गाएँगे.

पता नहीं कौन किसका विज्ञापन कर रहा है.

सचमुच, व्हाट एन आइडिया सर जी!

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4.8.08

अस्पताल, धमाका, मौतें और सफेद प्रिंस सूट

26 जुलाई 2008, अहमदाबाद.

शहर में कुछ ही देर पहले धमाके शुरू हुए हैं. अफरा तफरी के बीच लोग सिविल अस्पताल पहुँच रहे हैं. इनमें से अधिकतर धमाकों के शिकार हैं, और इसके अलावा स्वयंसेवी हैं, जो चिकित्सकों की मदद करना चाहते हैं.

ट्रोमा वार्ड के बाहर 108 नम्बरी एम्बूलेंसों की लाइन लगी है. घायलों की संख्या बढती जा रही है. एक अखबार का छायाकार अभी वहाँ पहुँचता है और सोच रहा है कि अपनी बाइक कहाँ खडी करे. दूसरा एक पत्रकार ट्रोमा वार्ड के अंदर घायलों को देख रहा है.

एक घायल को चोटें तो कम लगी है लेकिन वह बहरा हो चुका है. एक अन्य को यह होश नहीं है कि उसके शरीर से खून निकल रहा है. वह इतना डरा हुआ है बोल नहीं सकता.

ट्रोमा सेंटर की सफेद टाइलें गंदी हो रही हैं. वहाँ एक लाश पडी है, जिसके पास ज्योत्सनाबेन खडी हैं. ज्योत्सनाबेन पत्रकार को बताती हैं कि यह आदमी अभी जिंदा था, एक नर्स उसके लिए पलंग खाली करने गई और वह मर गया. पत्रकार उससे पूछता है कि वह कौन से धमाके का शिकार है, हाटकेश्वर के या नारोल के?
छायाकार को पार्किंग की जगह नहीं मिलती. वह सोचता है कि उसे बाइक सडक पर पार्क कर देनी चाहिए. जब वह अपनी बाइक को सडक पर पार्क कर रहा होता है, तभी एक तेज धमाका होता है.
पार्किंग में खडी वेगन आर कार ध्वस्त हो गई है. और उसके साथ ही यह धारणा भी ध्वस्त हुई है कि आतंकवादी अस्पतालों मे हमला नहीं करेंगे.

छायाकार धमाके से मात्र 20 फूट दूर है. जब वह होश मे आता है तब इस बात पर राहत की सांस लेता है कि वह सही समय पर बाहर निकल आया था.

ट्रोमा सेंटर के अंदर मौजूद पत्रकार धक्का लगने से नीचे गिर गया था. वह बच गया है. लेकिन उनके साथ खडी ज्योत्सनाबेन के शरीर में छर्रे घूस गए हैं. वे नहीं रहीं. ट्रोमा सेंटर की सफेद टाईलें अब लाल हैं.

30 लोग मारे गए हैं. ज्यादातर स्वयंसेवी थे, जो घायलों की मदद करने आए थे.

छोटा रोहन व्यास भी नहीं रहा, वह अपने पिता और भाई के साथ आया था. उसके भाई यश व्यास का शरीर बुरी तरह से जल रहा है और वह अपने पिता को ढूंढ रहा है. लेकिन उसे नहीं पता कि उसके पिता अब नहीं रहे.

10 मिनट बाद एक और धमाका होना बाकी है.


गृहमंत्री शिवराज पाटिल के लिए, जिन्हे सिविल अस्पताल के ट्रोमा वार्ड के अंदर घायलों से मिलने जाते समय इस बात की अधिक चिंता थी कि बरसाती पानी में उनका झक सफेद प्रिंस सूट कहीं गंदा ना हो जाए.

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