26.1.07

गणतंत्र दिवस की परेड देखें

सभी मित्रों को गणतंत्र दिवस की बधाई।

परेड के दृश्य यहाँ देखें।

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24.1.07

भारतीय विपक्ष और अमरीकी विपक्ष

सोनियाजी पिछले दिनो गुजरात आईं. आदिवासी इलाके में लोगों का उद्धार करने गई और दो दर्जन नेताओं के साथ एक भाषण भी दे दिया। खैर वो तो कोई खाश बात नही है, पर मेरा ध्यान उनके इस बयान पर गया:

गुजरात में कानुन व्यवस्था की हालत अच्छी नहीं है। कोंग्रेस शासित राज्यों में कहीं अच्छी कानुन व्यवस्था है, लोग सुरक्षित हैं।


मैं तो पढकर भोंच्चका रह गया। नहीं इसलिए नहीं कि उन्होने गुजरात में कानुन व्यवस्था को खराब बताया। वो तो ठीक ही है, विपक्ष में हैं तो विपक्ष की भाषा ही तो बोलेंगी। पर आश्चर्य हुआ जब उन्होने कहा कोंग्रेस शासित राज्यों में गुजरात से अच्छी कानुन व्यवस्था है।

उन्हें शायद पता ना हो पर कश्मीर में कोंग्रेस का ही राज है, असम में भी जहाँ हर दिन गिनकर दो धमाके हो रहे हैं और सैंकडो लोगों को मार डाला गया है, महाराष्ट्र में भी जहाँ मुम्बई और मालेगाँव में धमाके हुए, और दिल्ली में भी जहाँ सरकार से भिडी जनता पर गाज गिरती रही।

वस्तुत: हमारे देश में लोकतंत्र परिपक्व हुआ ही नहीं है, ऐसा लगता है। विपक्ष में चाहे कोंग्रेस हो या भाजपा, वजह बेवजह एक दुसरे को नाहक ही कोसना उन्हे विपक्ष का धर्म लगता है।

आज बुश का सम्बोधन सुन रहा था टीवी पर। मुझे आश्चर्य हुआ जब भाषण के दौरान अनेकों बार डेमोक्रेटिक सांसद भी खडे होकर तालीयाँ बजाते दिखे। हमारी संसद में तो ऐसे दृश्य की कल्पना भी नहीं कि जा सकती। अगर मनमोहनसिंह बोलेंगे तो सिर्फ कोंग्रेसी ही मेज पीटेंगे, और अडवाणी बोलेंगे तो भाजपा वाले।

यहाँ तक कि राष्ट्रीय हित के मुद्दों पर भी एकता नहीं दिखाते। चाहे वो पोटा हो या परमाणु सन्धि। क्या पक्ष और विपक्ष में रहने का मतलब सिर्फ एक दुसरे के खिलाफ तलवारे भांजना होता है।

हमारे यहाँ तो नेता बनते ही चेहरा छत की तरफ घुम जाता है, नजरें इतनी उँची चढ जाती है कि नीचे खडा आम आदमी तो दिखता ही नहीं!

हम तो बस कभी मेरा भारत महान कहते हैं कभी अतुल्य भारत!

हम अपने लोकतंत्र और संस्कृति का बखान करते थकते नहीं हैं, पर क्या हम कभी अपनी गिरहबान में झांककर देखते हैं?

23.1.07

अरिन्दमभैया की किताबें

अरिन्दम भाई, अरे वो अपने आई.आई.पी.एम. वाले.. पहचान तो गए ही होंगे आप!

हाँ, उनकी ही बात कर रहा हुँ। बहुत प्रतिभावान हैं। लेखक हैं, पब्लीशर हैं, कई कम्पनीयाँ चलाते हैं, फिल्म निर्देशन भी कर चुके हैं, ब्लोग श्लोग भी लिख ही लेते हैं... और पता नहीं क्या क्या करते हैं और क्या क्या कर सकते हैं। कहने का लेखाजोखा यह कि भई बहुत प्रतिभावान हैं, सिम्पल!!

उनकी प्लानमेन नामक कम्पनी भी फलफूल रही है... और लगभग तो लगता ऐसा ही है कि हर हफ्ते एक नई कम्पनी उनके अम्ब्रेला में आ ही जाती है, अगर ऐसा सम्भव ना भी हो सके तो नई पत्रिकाएँ तो ला ही सकते हैं।

और इन सबके बीच गुणवत्ता की चिंता कौन करता होगा? मैने प्लानमेन की सभी पत्रिकाएँ पढी हैं। चाहे 4PS हो या Business & Economomy या अभी अभी बाजार में आई द सन्डे इंडियन, गुणवत्ता के लिहाज से ये सारी पत्रिकाएँ अपने समकक्ष पत्रिकाओं के आगे कहीं नहीं टिकती।

संडे इंडियन के आलेख तो इंटरनेट पर से लिए गए हों ऐसे प्रतित होते हैं। आप एक तरफ संडे इंडियन और दुसरी तरफ इंडिया टुडे और आऊटलूक रखें तो फर्क अपने आप समझ में आ जाएगा।

जो नही समझ में आता वो यह कि अरिन्दमभाई के पास इतने पैसे आते कहाँ से हैं? पत्रिका छापना कोई मामुली काम नहीं है। वो भी 8-9 भाषाओं में!!! हर हफ्ते!!

मैने इन पत्रिकाओं में कोई खाश विज्ञापन भी नहीं देखा... (देगा भी कौन?). लेकिन फिर भी ये पत्रिकाएँ छप रही हैं। प्लानमेन की पता नहीं क्या प्लानींग या क्या सेटिंग है? मैं नहीं समझ पाउंगा, मेरे पास एम. बी. ए. की डिग्री नहीं है, और मैने कभी आई.आई.पी.एम. का प्रोस्पेक्टस भी नहीं देखा है!

22.1.07

असहनशील भारत

अतुल्य भारत तो नदारद है पर असहनशील भारत के दर्शन आजकल आसानी से हो रहे हैं!

बंगालुरू में मुसलमानों ने सद्दाम की फांसी का विरोध करने का बडा ही मौलिक और आश्चर्यजनक तरीका ईजाद किया और वाहनों मे आग लगाने के साथ साथ कई दुकानें भी स्वाहा कर दी। अपने ही वाहनों और अपने ही लोगों की रोजीरोटी के साधनों को जलाया गया एक ऐसे व्यक्ति के नामपर जो भारतीय भी नही है। इस हुडदंग में एक मासुम भी मारा गया जिसे शायद पता भी नही होगा कि सद्दाम आखिर था कौन? वैसे इन दंगाइयों में से बहुतों को पता नही रहा होगा कि आखिर विरोध किस बात का हो रहा है? निट्ठले लोगों को अपने मनमाफिक काम का बहाना चाहिए, और यह काम सृजनात्मक तो हो नहीं सकता तो विध्वंसक ही सही।

ठीक वैसे ही जैसे कानपुर में राम के तथा बजरंग बली के स्वघोषित चेलों ने किया। इन महानुभावों के तो फुटेज भी टीवी पर देखने को मिले। इनका तरीका भी बडा मौलिक किस्म का है और किसी भी कोण से सृजनात्मक नहीं है। हो भी नही सकता, अगर इन कार्यकर्ताओं को ध्यान से देखा जाए तो आसानी से समझा जा सकता है कि इनमें से कोई भी पांचवी पास भी नहीं होगा। भाडे के सडकछाप मवाली माइक पर बोलना तो जिन्दगी में सीख नही सकते पर माइक तोडना इन्हे अच्छी तरह से आता है।

इधर इन्दौर में भी दो समुदाय के लोग हथियारों का ओपर ऐयर प्रदर्शन करते हुए भीड गए और आगजनी शुरू कर दी।

वस्तुत: ऐसे असामाजिक लोगों से देश की छवि और समाज तो प्रभावित होते ही है, पर हमारे दैनिक कार्यों एवं रोजीरोटी पर भी गहरा असर होता है। स्कूल कोलेज बन्द तो पढाई बन्द, दुकानें बन्द तो मजदुरों के लिए खाने का ईंतजाम भी खत्म, और मध्यम वर्गीय लोगों के लिए मानसिक शांति खत्म।

सब खत्म लेकिन असहनशीलता खत्म नहीं होती।

13.1.07

आज बरसी

लो जी देखते देखते (इसे लिखते लिखते पढा जाए) एक साल बीत ही गया। आजके मनहुस दिन ही हिन्दी में चिट्ठा लिखना यानि कि मंतव्य शुरू किया था। मनहुस इसलिए कि मुई चिट्ठाकारीता की लत तो गुटखे की लत से भी भारी है, और अह्हो.. आनन्दम.. आनन्दम... कराती ही रहती है!!

डरिए मत! कोई बही खाता लेकर लेखा जोखा नहीं पेश करने वाला हुँ! बस सुचित करना और, और सब लोगों का धन्यवाद करना चाहता हुँ।

एक साल में बिग बोस की रूपाली की तरह मैने ढेरों रिश्ते बनाकर अपनी पोजिशन स्ट्रोंग कर ली है! ;-)

एक प्रिय लालाजी हैं, एक जुगाडी ताऊ है, एक चाचु, एक भाईसा, एक दादा, एक परम मित्र, एक "टाइमपास" मित्र, एक "खुदाई" मित्र, एक दिल्ली का "खाता पीता मित्र" और असंख्य बन्धुजन... वाह.. अपनी तो निकल पडी!!

और हाँ, लास्ट बट नॉट द लीस्ट एक महापुरूष भी हैं।

अब दो बेहुदा पंक्तियाँ झेलो:

इतने साल मेरी सोच बिचारी युँ ही तरसी,
धन्यवाद चिट्ठाजगत, कि अब युँ "आज बरसी"।

11.1.07

कानपुर की काली सेना

आज सुबह मैने सबसे तेज़ चैनल के छोटे चेतक "तेज़" में एक खबर देखी, कानपुर में युवतीयों ने मनचलों से अपनी रक्षा हेतु एक काली सेना बना रखी है जो इनसे लोहा ले रही है।

और कुछ शरीफ किस्म के युवकों ने अपनी बेवजह धुलाई से बचने और काली सेना पर "काउंटर अटेक" करने के लिए लाल सेना गठित की है।

कमाल है भई, समाजवादी पार्टी शासित उ.प्र. में भी ऐसा होता है?

शायद महापुरूष - जिन्होने बजरंगी, दुर्गा वाहिनी और मोदी की पुलिस जैसे जुमलों का बखुबी प्रयोग किया था - मेरी उत्कंठा का यथोचित निदान कर पाएंगे कि इस मामले में मुलायम सिंह की पुलिस क्या कर रही है?

कृष्ण राधा संगम पर पैनी निगाह के साथ अफलातुन पृविष्टी लिखने वाले सजन्न इस लाल-काली सेना की भी भ्रत्सना करते ही होंगे ऐसा मेरा विश्वास है!

क्योंकि सार्वजनिक रूप से हम मुद्दों को उठायें या नहीं, हमें पता होता है कि क्या सही है क्या गलत!

सवाल तो यह भी हो सकता है कि समाजवादी मुलायम सिंह की पुलिस निठारी कांड जैसे जघन्य अपराध को क्यों नहीं रोक पाई? पर हर सवाल पुछे नहीं जाते और ना ही हर घटना का मजाक बनाया जा सकता है। ऐसे सवालों के जवाब तो हमें ही ढुंढने होंगे, हर किसी को ढुंढने होंगे।

10.1.07

तीसरी चिट्ठी: मोनिन्दर के नाम

आदरणीय? मोनिन्दर सिंह,
निठारी, उ.प्र.

कैसे हो भाई,

आशा है कुशल मंगल होगी। अभी आप हमारे शहर के मेहमान हो। सोचता हुँ आपका स्वागत कैसे किया जाए। पान पराग तो हम खाते नहीं, वरना उसी से कर देते। हाँ, गालीयाँ बहुत खाई है...

और सुनाओ भाई, क्या हाल हैं? आजकल सेहत गिरती हुई सी लगती है। दुबले हो गए हो.. वांछित खुराक मिल नहीं रही होगी। मैं सादर माफी चाहता हुँ, आपका मनपसन्द भोज प्रदान करने में हम असमर्थ हैं। क्या करें, सभ्य होने की गलती कर चुके हैं, खाने में घास फुस ही खाते हैं।

खैर जाने दो, अपनी कहो। आजकल चुप चुप से रहते हो। कुछ बोलते नहीं। अब देखो ना हमारे डोक्टर साहब भी आपको सुला सुला कर जगाते हैं, पर फिर भी आप कुछ उगलते नहीं। बडा कठोर मन पाया है आपने। अब तो सबुत भी मिल गया हमें कि नन्हे बच्चों को रेतते हुए जी ना मचलाया होगा आपका।

पर यह क्या? इतना कठोर मन, ऐसी सेहत, फिर भी बिमार पड गए? अस्पताल में भरती हो गए? यकिन नहीं होता। क्या गुल खिला रहे हो, मासुमों का गुलशन उजाडने के बाद, उनके सपने छिनने के बाद, उनका जातीय शोषण करने के बाद। वैसे तुम बिमार ही हो। पर शारीरिक नहीं, मानसिक बिमारी है तुमको। एक ऐसी बिमारी जिसका इलाज इंसानो के पास नहीं है। वैसे भी यह बिमारी ईंसानो को होती ही कहाँ है!!

आपके चलते फिरते प्रेत जैसे नौकर के क्या हाल हैं? आँखे सूजी हुई लगी थी, सोये नहीं लगता है, या अन्यथा ले लिया लगता है। ब्रेकफास्ट में ब्रेड परोस दी होगी।

भाई मोनिन्दर, पुनर्जन्म में अपना भरोसा नहीं है, फिर भी बस यही तमन्ना है, कि तुमको जल्द से जल्द फाँसी हो जाए, और तुम्हारा पुनर्जन्म हो। तुम जन्म लो एक गरीब के घर में... पलो बढो अभाव में... और एक दिन एक दरिन्दा तुम्हे उठा ले जाए... तुम्हारा बलात्कार करे और फिर तुम्हे भूनकर खा जाए। तब तुम्हे पता चलेगा कि तुमने क्या पाप किए थे।

ज्यादा नहीं तो बस सोचकर ही देख लो। तुम्हारी बिमारी ठीक हो जाएगी। शायद!

शेष कुशल,

- पंकज

7.1.07

संजय होने का मतलब

संजय भाई आज और बुढे हो गए हैं, और इस घटना को वे अपनी जिन्दगी की सबसे दुःखदायी घटना मानते हैं। उन्हे बुजुर्ग कहलवाना पसन्द नहीं और समय उनकी सुनता नहीं...

तो उनके जन्मदिन पर उनके होने का जो अहसास है वो व्यक्त करता हुँ:

  • संजय होने का मतलब है, प्रखर राष्ट्रवादी होना... पर यह सोचना कि युरोपीय संघ की तरह दक्षिण एशिया में भी संघ किस तरह बनेगा और फिर अफसोस करना कि मेरे जीते जी यह नहीं होगा।
  • संजय होने का मतलब है, तरकश का होना, आखिर सोच उन्ही की थी।
  • संजय होने का मतलब है, धृतराष्ट्र का होना, और कई चर्चाकारों को राहत होना...
  • संजय होने का मतलब है, बुजुर्ग कहलवाने से नफरत करना, अपने डेस्कटोप पर नित नए प्रयोग करके युवा बने रहने की सफल कोशिश करना. ;-)
  • संजय होने का मतलब है, Taking for Granted बन जाना। और हम लोगों को यह अहसास करने देना कि पीछे वो तो हैं ही और आगे भी वो ही हैं।
  • और संजय होने का मतलब है, किसीके द्वारा जन्मदिन की बधाई पाने से सख्त नफरत करना...

 

जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ। :)

5.1.07

कविराज को हँसाना है : बन्दर चला चुनाव जीतने

निवेदन:

इसे हल्के फुल्के मन से पढें।

मैने किसी चिट्ठाकार पर कोई व्यंग्य नहीं किया है।

मैने सिर्फ माहौल को हल्का फुल्का बनाने के लिए और हंसने हंसाने के लिए ही यह पोस्ट लिखी है।

मैने किसी भी आयोजन की गरिमा को ठेस पहुँचे ऐसा नहीं चाहा है। कृपया उतनी दूर तक ना सोचें।

अगर फिर भी आपको कुछ अखरता है तो कृपया टिप्पणी के द्वारा मुझे लताडने में संकोच ना करें। :)

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जंगल में यह खबर आग की तरह फैल गई। चुनाव आ गए चुनाव आ गए।

कपीशराज: क्या है रे... क्या है रे.... कौण सा चुनाव है भाई?

मास्टर छाप बन्दर: तु लग तो सलोना सा रहा है रे... कब पैदा हुआ?

कपीशराज: इसी साल.. हुकुम.. इसी साल, एक दम तरोताज़ा हुँ।

मास्टर छाप बन्दर: हाँ तो चल आ जा.. लगा ले लाइन.. हम एवोर्ड देंगे.. इस साल का खूबसुरत बन्दर।

कपीशराज: (उछलकर) ओहो... खी खी खी... किधर लगाऊँ लाइन।

मास्टर छाप बन्दर: उधर लगा ले... देख तेरे जैसे और भी हैं...

कपीशराज: इत्ते सारे!!! कित्तों को दोगे???

मास्टर छाप बन्दर: अबे.. डर काहे रहा है.. सबको ना देंगे... छाँट छाँट कर देंगे।

कपीशराज: ऐसा.. खी खी खी... अपने नहीं छँटने वाले... आहो जी आहो.. आहो जी आहो.... (नाचता हुआ लाइन लगाने पहुँचा)

मास्टर छाप बन्दर: देख लिज्यो.. कपीशराज और भी आइटम है।

कपीशराज लाइन में...........

कपीशराज: भाई.. वो आगे कौण सा आइटम है... लागे तो अपनी कौम का है.. पर हट्टा कट्टा है.. अपने तो दो हड्डी के हैं।

हरियाणवी बन्दर: बावळी बुच, गेल्लो हुग्यो के? बिलायती बन्दर है... केनेडा से आया है।

कपीशराज: (उछलकर पेड पर चढ गया)... उसको दूर कर.. उसको दूर कर... मन्ने डर लागे है।

हरियाणवी बन्दर: अबे... नीचे आ...नीचे आ बेटी के बाप.... कुछ ना करेगा... पाँच पंच परमेशर है तो सही।

कपीशराज: किधर है... मन्ने तो ना दिखे...

हरियाणवी बन्दर: तुझे सही चीज कब दिखती है...वो देख.. पाँच दरोगा.. वही पंच..देख तो ले एक बार..

कपीशराज: वो.. वो.. उत्तम प्रदेश वाला दरोगा कौण है.. मेरी फटती है उससे... लिख लिखकर धोता है सबकी...

हरियाणवी बन्दर: दो है... कौण सा बोलुं.. एक बालक बन्दरु है, एक बुढऊ है।

कपीशराज: वो जो फुरसत में रहता है। सबकी लगाता है। बु हु हु .. मन्ने निकाळ देगा।

हरियाणवी बन्दर: ना, नीचे आजा मेरे लाल... ना निकाळेगा.. और भी दरोगा है... देख एक बिलायती भी है... कुवैती बन्दरू। और मास्टर छाप बन्दर अखंड जंगलवादी बीग बी (बीग बन्दरू) भी हैं। आजा बेटा.. नीचे आजा।

कपीशराज: बेटा काहे बोला रे.... तु तो जंगल में नया आया है।

हरियाणवी बन्दर: रे.... अपणी तो बोली ऐसी है रे। आजा मेरे ताऊ नीचे आजा नहीं छँटणी हो जावेगी.. तु लटकता रहेगा।

केनेडियन बन्दर: कौन ही मिस्टर... ओ हेल्लु... मिस्टर केपीश... प्लीस काम डाऊन...

हरियाणवी बन्दर: काम डाउन.. उनका काम तो डाउन ही है....

केनेडियन बन्दर: यु... हमको हिन्डी भी आटा है। आइ मीन गुस्सा थूक दो.. देना है तो गुड लूक दो।

हरियाणवी बन्दर: हाँ...तो वैसे बोलो हर बात पे कवि काहे बनते हो।

कपीशराज: अबे ओ... काम किसका डाउन बोला बे...

हैदराबादी बन्दरू: भाई.. हल्ला मत मचाओ.. मै लाइन छोड दुंगा नहीं तो...

सब एक साथ: नहीं... नहीं... नहीं.... आप मत जाइए...

हैदराबादी बन्दरु: (हँसकर) नहीं जाता.. नहीं जाता... खी खी खी... अब तो आदत पड गई है.. ही ही....

कपीशराज: मै नीचे नहीं आता.. उस बिदेशी को बाहर निकालो पहले...

वकील बन्दर: नहीं जाएगा... वो बिदेशी नहीं है.. एन.आर.जे. है.. नोन रिलायबल जंगली...

केनेडियन बन्दर: कौन.. बोला.. उल्टा मिनिंग... नोन रेजिडेंशियल को नो रिलायबल.. बताएँ क्या हम है कितना एबल.. शरीर में डबल..

जग्गु भट्टी बन्दर: ना. ट्रीपल.. ट्रीपल..

केनेडियन बन्दर: ओके.. करेक्शन... शरीर में ट्रीपल.. और एवोर्ड जीतने में प्रबल..

हरियाणवी बन्दर: ओ भाई... तन्ने तकलीफ के है? कविता काहे ठोके है..मारे पल्ले ना पडे..

कपोलकल्पी बन्दर: कविता में क्या रखा है। समस्या उठाओ..पानी नहीं...घास नहीं... जंगल में मंगल नहीं... उठो.. जागो.. सृजन करो.. शिल्प बनाओ.. समस्या उठाओ।

हरियाणवी बन्दर: अरे.. समस्या कोई माधुरी दिछीत है के? उठा लुँ.. उठा तो लुँ... रखुँ किधर...

खुदाई बन्दर: उसके मत्थे पर रख दे.. खी खी खी खी...

कपीशराज: (पेड पर उछलकर) हाँ रख दे रख दे.. उपर से फोटु लेता हुँ।

कपोलकल्पी बन्दर: अबे तेरी फोटु खिंचु क्या नीचे से...

केनेडियन बन्दर: यस.. यस.. टुम खींचो फोटु, मई कविठा ठोकेगा...उस पर..

हरियाणवी बन्दर: तेरी कविता का ब्हाय रचाऊँ.. तु चुप हो जा.. नहीं तो करूं के जात बाहर।

खुदाई बन्दर: ओये एन.आर.जे. को गाली...नहीं चलेगी नहीं चलेगी।

फुरसती दरोगा: अरे... ए..ई.... च्चुप हो जाओ.. लगाऊँ क्या लँपड...और भईये.. ओ .. नीचे उतर, पेड पर लटकता रहेगा क्या।

कुवैती बन्दर: देखो भाई, अपने को टेंशन नहीं लेनेका... खुदा को देनेका.. जो उपर है वो उपर है.. बस।

हरियाणवी बन्दर: ओ भाई दरोगा.. तेरे केणे का के मतबल है? तु बोल रहा है वो जीत गया ऐसा...

कुवैती बन्दर: तु... तु तडाक करेगा तो आऊट... अपने को डिसिपलीन होना रे बाबा।

हरियाणवी बन्दर: रे.. अपणी तो बोली ऐसी है रे ताऊ... तु डंडा करता रे.. इन मनचलों पे..

बन्दर आगराबादी: तु.. चुप हो जा अब..डालुँ क्या कचराघर में?

हैदराबादी बन्दर: बाकी के किधर गए.. उनको पकडकर लाओ रे। दरोगा क्या कर रहे हैं। यह तो मेरा अपमान है। मैं चला...

सब: नहीं..... नहीं.... नहीं......

हैदराबादी बन्दर: खी... खी.... खी....(आँख मारकर) मैं क्या बोला था?

मास्टर छाप बन्दर: बातें कम काम ज्यादा।

हैदराबादी बन्दर: ये चबड चबड क्या खा रहे हो.. मुझे भी दो!!

मास्टर छाप बन्दर: अंगुर खा रहा हुँ.. नहीं दुंगा...

हरियाणवी बन्दर: अबे ओ.. लंगुर.. अंगुर... बाद में खाना.. पहले मन्ने चुन ले...

कपीशराज: (पेड से) तु क्या तोप है क्या.. चुन ले... मन्ने ले लो... मैं लायक हुँ...

मास्टर छाप बन्दर: चबड.. चबड... उसका ना.. चबड चबड... फैस्स्सला... चबड... माननीय.. चबड चबड... दरोगा मोदय... चबड करेंगे..

फुरसती बन्दर: कैसे खाता है रे... पहले खाना सीख बहुत गलती करता है...

मास्टर छाप बन्दर: लेकिन..चाचु... अभी कुछ दिन से ना.. ही ही.. चबड चबड.. आप भी ... थोडा तो ऐसे ही खा रहे हो...

फुरसती बन्दर: ओये.... (उछलकर) लगाऊँ क्या लम्पड... चुनाव रद्द....

मास्टर छाप बन्दर: नहींहीईही... माई बाप... छमा ... चबड चबड ... छमा...

फुरसती बन्दर: ह्म्म्म... गुड.. कंट्रोल में रहो वत्स.. बन्दरगीरी बन्द करो.. इंसान बन जाओ..

मास्टर छाप बन्दर: देर लगेगी चाचु... क्या करें... कालक्रम में होगा.. नियती में भी बन्दर बनना लिखा है.. खी खी खी...चबड...

जंगलवादी बन्दर: आहा.... लाइन लग गई लम्बी...हो गए सक्सेस...रिकोर्ड गए टुट.. करो अब रिसेस.. नहींस्स... मैं कविता नही कर सकता..मुझे भी संक्रमण लग गया..

हरियाणवी बन्दर: ओ भाई खुदाई... ओ.. अबला-टुन बन्दर ना दिखे है... कित्थे है...? लाइन लगाओ उसकी... खी खी खी...

खुदाई बन्दर: पता नहीं... नई पारटी खोलता दिखे है....

मास्टर छाप बन्दर: ओये.. उनके प्रति.. चबड..चबड.. अपने को शरदा.. है.. कोई कुछ ना कैगा..चबड..

सब हैरत से: कब से.....

मास्टर छाप बन्दर: फुरसती चाचु बोले तब से.....

तभी जोर से आवाज आई... आ...आ... आइइ...

सबने उपर देखा, कुवैती बन्दर कपीशराज को डंडा कर रहा था... अबे.. नीचे उतर.. नीचे उतर...

फुरसती बन्दर: अरे रहने दो भाई.. लटकने दो.. ना माने तो कोई क्या करे...

कपीशराज: उसको हटाओ.. उसको हटाओ...

दिल पर ना लगाएँ... :)

4.1.07

एक बन्दर की उलझन-सुलझन

 

खुशी से लोटपोट होता हुआ काला-लाल-हरा बन्दर जिसे अपने समाजवादी होने पर गरूर है, उछलता कुदता खिलखिलाता हुआ अपने आका लंगूर के पास पहुँचा।

 

बन्दर: उस्ताद! छप्पर फाड दिया उस्ताद।

लंगूर: क्या है रे? अब किसका छप्पर फाड आए हो भाई। ऐसे ही मुश्किलें कम है क्या!

 

बन्दर: अरे क्या हुआ उस्ताद? मैं तो गप्प ठोक रहा था कि फाड दिया। वास्तव में तो हमारे मुखिया ने सबको झाड दिया, उस्ताद। कल सरे आम डिक्लेर कर दिया कि वो जंगल किंग है। खी खी खी।

लंगूर: अबे तो उछल क्यों रहा है। यह जगह कौन सी है?

 

बन्दर: उत्तम प्रदेश बीहड।

लंगूर: और यहाँ का रींग मास्टर कौन है।

 

बन्दर: अपने मुलायम से मुखिया।

लंगूर: तो जंगल का राजा कौन?

 

बन्दर: मुखियाजी!

लंगूर: तो उछलने की क्या बात है? अपने सरताज बेताज .. ना.. ना.. स-ताज राज कर रहे हैं बर्रुखदार। जीयो और जीने दो। सूरज उग गया है, उजाला फैल गया है। बाल गोपाल नाच रहे हैं।

 

बन्दर: बाल गोपाल!!!! आका अपने प्रदेश में बाल गोपाल खेलते थे, कुदते थे.. पर अब सुना है..उनकी निर्मम....

लंगूर: श...श..श... धीरे बोल.. आहिस्ता बोल.. लोग सुन लेंगे बन्दरु... कि.. यहाँ तो....

 

बन्दर: .... बाल गोपालों... की ही रास लीला हो गई।

लंगूर: श..श.. धीरे भाई मेरे... धीरे..... क्यों मुद्दा दे रहा है।

 

बन्दर: पर आका ऐसा कैसे हो गया? सरकार क्या कर रही थी।

लंगूर: होता है, जंगल में हर तरह के प्राणि होते हैं। कुछ वहशी भेडियों के भटकने से उत्तम प्रदेश को बदनाम ना कर। मुखिया बेचारा क्या क्या देखे।

 

बन्दर: सही है आका.. ऐसी तैसी स्साले गाली देने वालों की! अब अपने सेकुलर मराठा जंगल में द्रोपदी का सरेआम चीरहरण कर डाला मनचलों ने....तो वहाँ का मालिक क्या करे? क्यों?

लंगूर: वही तो... पर लोग मुढ है, समझते ही नहीं... फोगट की चिल्लपों...

 

बन्दर: लेकिन आका, फिर....

लंगूर: क्या बे?

 

बन्दर: ...फिर... कुछ धुन्धला धुन्धला सा याद आता है..... बीते जमाने में काहे आरोप लगे थे.... दढियल शेर.... बजरंगी बन्दर.... मनचले... कृष्ण....

लंगूर: श..स्स्स्स.... गडे मुर्दे मत उखाड.. रात गई बात गई... भूल जा उसे।

 

बन्दर: हाँ मेरे आका, बोलने वाले और सुनने वाले सब अपने ही हैं..

लंगूर: अब सही लाइन पकडी... खी खी... पर बेटा.. सो बात की एक बात...

 

बन्दर: वो करे तो बलात्कार....और... हम करें तो...

लंगूर: चमत्कार! चमत्कार बन्दरु.. चमत्कार हो गया...

 

बन्दर: आहा... चमत्कार हो गया..

लंगूर: नट नाच के बोला... फैल गया उजाला...

 

बन्दर: पर चिराग तले.....

लंगूर: श..स्स्स्स्स....स्स....स्स्स्स्स............

2.1.07

जाँच प्रविष्टी

कृपया इस प्रविष्टी को नजरअंदाज करें. यह एक जाँच प्रविष्टी है, जो विंडोज के लाइव-राइटर से प्रेषित हुई है.

  • जाँच प्रविष्टी
  •  जाँच प्रविष्टी

यह एक जाँच प्रविष्टी है, जो विंडोज के लाइव-राइटर से प्रेषित हुई है.यह एक जाँच प्रविष्टी है, जो विंडोज के लाइव-राइटर से प्रेषित हुई है.

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