31.3.06

अहमदाबाद में CNG क्रांति

आज से दो साल पहले: सन 2004

अहमदाबाद भारत का सबसे प्रदुषित शहर माना जाता था. और सही भी था. यहाँ की सडको पर इतना धुँआ था कि कोई सांस ही क्यों ना ले ले. एक साल पहले भारत सरकार ने जो सबसे प्रदुषित शहरो की सुची जारी की थी उसमे भी अहमदाबाद अव्वल था. फिर कानपुर, दिल्ली, चैनई का नम्बर आता था. केन्द्र सरकार द्वारा गठीत भुरेलाल समिति ने इन प्रदुषित शहरो मे वाहनो के CNGकरण पर जोर देने की सिफारीश की थी.

अहमदाबाद मे खस्ताहाल ऑटो-रिक्शा चलते थे, वो भी अवैध रूप से केरोसीन डालकर. उनसे निकलने वाला धुँआ इतना भयानक होता था कि, आदमी को बिना पीए ही दिन की 100 - 200 सिगरेट पीनी पड जाती थी. महानगरपालीका की बसें भी चलती फिरती प्रेत ही नजर आती थी. कब बन्द पड जाए या कब चपेट मे ले ले भगवान ही मालिक था. सडको के दोनो किनारो पर धुल पडी रहती थी जो हवा मे घुलकर प्रदुषण को बढाने मे अपना अमूल्य योगदान देती थी.

आज सन 2006:
अब बदलाव की बयार बहने लगी है. अहमदाबाद मे CNG क्रांति आई. केरोसीन से चलने वाले ऑटो CNG मे बदल गए. काले खटारा ऑटो की जगह पीले और हरे खुबसुरत ऑटो ने ले ली. वो भी बिना किसी धरना प्रदर्शन के. जैसा की दिल्ली मे हुआ था. दिल्ली के CNGकरण पर जो दिक्कते आई थी, वैसी दिक्कते यहाँ नहीं आई. सबकुछ शांति से और चुपचाप कब हो गया पता ही नही चला. आज अहमदाबाद के 99% ऑटो CNG मे बदल गए है. कुछ दिन पहले भुरेलाल समिति ने भी उच्चतम न्यायालय मे कहा कि अहमदाबाद मे प्रदुषण पर लगाम लगी है.







रोज की हजारो कारे CNG - LPG मे बदल रही है. मेरी कार भी LPG पर चलती है. महानगरपालीका ने सैंकडो नई CNG बसे खरीदी है और हजारो खरीदी जानी है. अहमदाबाद मे यह सब सुनियोजीत तरीके से हुआ था. पहले CNG पम्प खोले गए और CNG की किल्ल्त नही रही. फीर ऑटो वालो को भी लगने लगा कि CNGकरण के काफी लाभ है. आज उनको प्रति किलोमिटर 50 पैसे का ही खर्च आता है, ऐसा मुझे एक ऑटो वाले ने कहा. अहमदाबाद मे धुल और गर्द को हटाया जा रहा है, तथा नई आधुनिक सडके बन रही है.








और फिर देश की पहली BRTS यानि बस रेपिड ट्रांसपोर्ट सिस्टम पर भी अगले महिने से काम शुरू होने वाला है, जिसमे बसे सडक के मध्य मे बनाई गई स्पेश्यल लेन मे चलेगी. और यदि केन्द्र सरकार मेहरबान हो ही जाए तो शायद लम्बित पडे अहमदाबाद मेट्रो परियोजना पर भी काम शुरू हो जाए. इसके अलावा साबरमती रीवरफ्रंट के पुरा होने का भी बेसब्री से इंतजार है.
खैर अब चौराहों पर पहले जैसा दम नही घुटता.

(रवि कामदार शायद पुरा सहमत ना हो मुझसे :-) , पर काफी हद तक तो होगा)

टेस्ट कर रहा हुँ

देखना चाह्ता हुँ कि यह पोस्ट नारद पर कब आता है. आज नारद पर कुछ गडबड लगती है. मेरी पाठशाला की पोस्ट आई ही नही... और फिर आई भी तो एकदम पीछे... पुरानी पोस्टो के भी पीछे. वहाँ भी नारद का पन्ना कुछ गडबड है.

24.3.06

मान गए बहुरानी

बहु हो तो ऐसी. क्या धोबी पछाड देती हो. सचमुच मान गए आपकी उस्तादी को. कल लोकसभा और राष्ट्रीय सलाहकार आयोग से इस्तिफा क्या दिया.. देश मे खलबली मचा दी. और विपक्ष बेचारा तो बगलें झांकता नज़र आया. जोर का झटका धीरे से नही पुरे जोर से ही लगा.

अब जेटली साहब भले ही कहे कि ये हमारी जीत है, सोनियाजी को मजबुरन त्यागपत्र देना ही पडा. लेकिन वास्तविकता तो वो भी समझते होंगे कि एक सोची समझी चाल मे उनकी पार्टी ही नही पुरा विपक्ष, समाजवादी पार्टी के साथ साथ मार्क्सवादी पार्टीयाँ भी फंस चुकी है.

त्याग की देवी बनकर सोनिया अब आगामी चुनावों मे वामदलो पर भारी पडने वाली है. और वामदल के सांसदों के लिए भी भी त्याग के इस मार्ग पर चलना आसान नही होगा. अगर ऐसा होता है तो वामदलो के दसियों सांसदों को त्यागपत्र देना पडेगा, जो उनके लिए खतरे से खाली नही है. वैसे भी हाथ लगी सत्ता को युँ जाने देना आसान काम नही होता.

भारत वैसे भी भावुक देश है. लोगो की भावनाओं को उभारना और उनसे खेलना इस देश मे बहुत आसान है. मुझे वो दिन याद आता है जब सोनिया ने भरपुर नौटंकी के बीच प्रधानमंत्री पद लेने से इंकार किया था. उस दिन कोंग्रेसीयों ने चापलुसी की जो सीमाएँ त्यागी थी वो देखने लायक थी. मन मे हंसी भी आ रही थी और दुख भी हो रहा था कि हमारा देश ऐसी व्यक्तिपूजा से कब बाहर आएगा.

और अब एक और ड्रामा शुरू हो गया. मै इसे सो फिसदी सुनियोजीत ड्रामा ही मानता हुँ. कल रात दूरदर्शन समाचार देख रहा था. क्या कवरेज कर रहे थे वे लोग सोनिया की!! एक तरफ तो बकायदा सोनिया की फ़ोटो वाला विशेष लोगो भी लगा रखा था. इतनी मक्खनबाजी की कि उकता कर मैने टीवी ही बन्द कर दिया.

देखना यह है कि कोंग्रेस को इस स्टंट से कितना चुनावी फायदा मिलता है. क्योंकि इस देश के मतदाताओं को समझना भीष्म पितामह के मन की बात जानने जैसा है - पता ही नही चलता.

खैर जो भी हो... हमारी बहु त्याग की देवी सोनिया ने तो कमाल कर ही दिया. जयहिन्द.

19.3.06

मै, ब्लोगजगत और एक संयोग

कल थोडा अपसेट था. हो जाता हुँ कभी कभी. रात को लेटे लेटे कुछ ना कुछ सोचे जा रहा था. फिर ब्लोगजगत के बारे में सोचने लगा. मेरा इस तरफ अनायास ही आना हो गया. या युँ कहुँ कि एक छोटा सा संयोग ही था. सचमुच कभी कभी छोटी छोटी घटनाएँ भी कितना फर्क ला देती है.

हम ब्लोगजगत से एकदम कटे हुए थे. ऐसा नही है कि नेट सेवी नही थे. वो तो थे. मै गुगल ग्रुप, याहु ग्रुप से वाकिफ भी था. पर मुझे वो सब अच्छा नही लगता था. सोचता था ये सब निठ्ठले लोगों का टाइमपास का तरीका है. हमे ब्लोगजगत की तरफ खिंचने का श्रेय अगर किसीको जाता है तो वो है मेरा मित्र रवि कामदार.

मेरी रवि से मुलाकात सडक पर हुई थी. हम युंही टकरा गये थे. और बस एक सफर शुरू हो गया. आज सोचता हुँ अगर उस दिन मै एक मिनट भी देरी से चला होता तो रवि से ना टकराता, ना ही उससे कभी मिल पाता और ना ही आज ये लिख रहा होता. सब संयोग ही तो है.

रवि ने ब्लोग के बारे मे बताया, फीड क्या होती है बताया. फिर हमारा सफर शुरू हुआ. विस्तार से तो क्या बताऊ आप बोर हो जाओगे. खैर, हममे से सबसे पहले भ्राताश्री ने लिखना शुरू किया. उनका ब्लोग जोगलिखी को देखकर मैने अपना अंग्रेजी ब्लोग शुरू किया. रवि तो अंग्रेजी मे पहले से ही लिखता था. फिर एक दिन इच्छा हुई कि क्यो ना मै भी हिन्दी मे लिखु. भैया ने काफी प्रोत्साहित किया. और बस मंतव्य शुरू हो गया, और कुछ दिनो मे तत्वज्ञानी के हथौडे भी पडने लगे.

फिर भैया ने सोचा कि क्यो ना हमारा एक कोमन प्लेटफोर्म हो. जहाँ पर सभी ब्लोग हो. और ऐसे जन्म हुआ तरकश का.

शुरू मे हमारा विचार था कि तरकश पर हम, तीनो के हिन्दी ब्लोग रखेंगे. पर धीरे धीरे नये नये ब्लोग जुडते ही चले गये और तरकश एक समृद्ध नेटवर्क बन गया. आज तरकश पर हमारे पाँच हिन्दी ब्लोग (जोगलिखी, मंतव्य, तत्वज्ञानी के हथौडे, टेक्नोलोजी का तत्वज्ञान, पहेली), दो अंग्रेजी ब्लोग, दो गुजराती ब्लोग, एक फोटोब्लोग, एक हिन्दी पोडकास्ट, और एक "नारद" जैसी ही गुजराती ब्लोगो की फीड एग्रीगेट साइट (ओटलो) है.

और भी कई नये ब्लोग जुडने वाले है, जैसे कि रवि का गुजराती ब्लोग, खुशी का ब्लोग, अभिजीत का ब्लोग वगैरह....

ओटलो शुरू करने के पीछे हमारी मंशा गुजराती चिट्ठाजगत को समृद्ध बनाने मे योगदान देना है. इस साईट के माध्यम से लोग आसानी से जान पाएंगे कि गुजराती चिट्ठाजगत मे क्या कुछ नया है. इसको बनाने मे जितुजी की सहायता के प्रति हम हमेशा आभारी रहेंगे.

हिन्दी चिट्ठाजगत मे आने का दुसरा यह भी लाभ हुआ कि हम व्यवसायिक दृष्टि से भी हिन्दी का महत्तम उपयोग करने की सोचने लगे. हमारी कम्पनी की वेबसाइट के हिन्दीकरण का काम चल ही रहा है. इसके अलावा हम अपने कई क्लाइंटो की वेबसाईटो के कुछ भाग हिन्दी मे भी अनुवादित कर रहे है.

हमारा सफर और जितना हो सके उतना योगदान जारी रहेगा.

12.3.06

रंग दे बसंती :: ब्लोगरों की चाल..... बेहाल

मेरे मोहल्ले में शुरू हुई एक प्लानिंग. बसंती को रंगने की. इसबार विशेषज्ञों की राय ली गई. और विशेषज्ञ थे, हिन्दी ब्लोग जगत के कुछ धांसु ब्लोगर.... देखिए क्या होता है.

मेरे मोहल्ले में होली की धूम मची हुई है. बनवारी, कुलभूषण, पांडु पहलवान, कल्लु और मास्टरजी भी लग गये प्लान बनाने में. प्लान है बसंती को रंगने का. ये बसंती आमिर खान वाली नही है. मोहल्ले की बसंती है. जब मोहल्ले में आती है तो सब लाईन लगा के देखते हैं. पास जाने की या छुने की कोशीश तो भूल कर भी नही कर सकते. ये कोई “भाग बसंती भाग” नही है, ये तो “मार बसंती मार” है. यहाँ तक कि पांडु पहलवान भी खुद को बेबस पाता है. तो एक बस होली ही तो है जब मन के अरमान पुरे कर पाएंगे ये लोग, रंगने के बहाने. पर बसंती को रंगना कोई बच्चों का खेल नही है. भई पूरा प्लान बनाना पडेगा. विशेषज्ञो की राय भी लेनी पडेगी. चलिए देखते है क्या प्लानिंग चल रही है, चौपाल पर.

पांडु: इस बार तो रंगना ही है बसंती को.
कुलभुषण: चिंता ना कर पांडु, इस बार ऐसा रंगेंगे, कि सात पुश्तें याद रखेगी.
बनवारी: ओये भाभीजी, मायके गई तो ज्यादा उछल मत, इस बार ऐसा रंगेंगे – बोले तो ऐसे जा रहा है जैसे हर बार रंगता आया है.
कुलभुषण: तो तुझे क्यों मिर्ची लगती है, हिम्म्त है तो तु रंग के दिखा. मिँया खुद तो दुबक के बैठा रहता है.
कल्लु: मुझे किसने बुलाया. मैं कोई दुबक के नहीं बैठता.
पांडु: अबे मुर्गी की औलाद, एक मुर्गी तो सम्भाली नही गई तेरे से, कहता है दुबक के नही बैठता.
कल्लु: देख गाली मत दे पन्डवा. अच्छा नही होगा, कहे देता हुँ.
मास्टरजी: बस बस, ये बच्चों की तरह लडना झगडना बंद करो, और मुद्दे पर आओ.
पांडु: हाँ तो मुद्दा क्या है?
बनवारी: सिर है मेरा. अबे मोटी बुद्धि के, मुद्दा है बसंती को रंगने का.
मास्टरजी: बिल्कुल सही, और ये तुम जैसे नौसिखीयों के बस की बात नही है. इसके लिए तो विशेषज्ञ ही चाहिएंगे.
कल्लु: कहाँ से आंएंगे आपके विशेषज्ञ?
मास्टरजी: उसकी चिंता मत करो. मैने हिन्दी ब्लोगरों की जमात के उस्तादों को बुला रखा है. उनसे बडा विशेषज्ञ कोई नही हो सकता.
बनवारी: अच्छा किया मास्टर.. बहुत अच्छा किया. अरे वो देखो कौन आ रहा है मटकता हुआ.
मास्टरजी: हाँ, मुझे पता ही था सबसे पहले दौड कर यही आएंगे. आइए आइए जितेन्द्र चौधरी भाई कुवैत रिटर्न. दोस्तों ये है जितेन्द्र चौधरी उर्फ जितु उर्फ नारद मुनि... हर किसी पर वक्त बेवक्त नज़र रखना इनकी आदत है.

जितु: नारायण नारायण.

पांडु: ओये नारायण छोड, यहाँ कोई नारायण नही है.. मुद्दे पे आ जल्दी. वैसे मुद्दा क्या है?
जितु: बन्धु, ये हमारा तकिया कलाम है. हम नारद हैं सबकी खबर रखते है.
बनवारी: सच्ची!! तो जल्दी बताओ आज बसंती किधर से आएगी.
जितु: पता नही बन्धु, उसकी फीड मे गडबड लगती है. कोई अपडेट नही है अपन के पास.
बनवारी: फीड!?? अबे किसे उठा लाया रे मास्टर? ये क्या अनाप सनाप बोले जा रहा है.
जितु: चिंता मत करो, हमारा सोफ्टवेर क्राउल करने मे उस्ताद है. अभी पता लगा लेते हैं.
कुलभुषण: मास्टर ये कौन साहब है...क्या बोले जा रहे हैं.. मेरे तो कुछ समझ नही आ रहा. मै समझा था समझदार लोग लाओगे.
मास्टर: तुझे पता नही है रे, बडी उँची चीज़ हैं ये... देखना अभी पता लगा लेंगे बसंती किधर से आएगी.
जितु: लग गया पता!
कुलभुषण: वाह वाह जितुजी.. पता लग गया.
बनवारी: वाह भाई शाबास. पता लग गया.
पांडु: वाह वाह जितुजी तीर मार लिया... पता लग गया.
मास्टर: लेकिन पहले पुछो तो सही पता क्या लगा?
जितु: यही कि बसंती, तिसरी गली से निकल कर चौराहा देकर पहली गली से गुजरेगी.
सब अवाक. एक दुसरे का मुँह देखने लगे.
बनवारी: अरे लेकिन वो तो हमेंशा ही उधर से आती है, आज तो सोचा था कि रास्ता बदलकर आएगी. आपने नया क्या बताया?
कुलभुषण: मास्टर यार किसी और को बुलावो.... गाईड करने.

हम हाजिर है दोस्तों....

ये कौन साहब आ गये? लो ये तो अपने दिल्ली वाले अमित हैं.

अमित: नमस्कार दोस्तों. देखो अपन लल्लु नही है. पहली बात तो ये कि आपकी एप्रोच ही गलत है.
बनवारी: अच्छा? ये तो सोचा ही नही.
अमित: तो सोचो ना बन्धु! पहले बताओ बसंती को कौन से रंग का रंग लगाओगे?
पान्डु: रंग का रंग? ये क्या बला है? अरे यार मुद्दे पर आओ ना! वैसे मुद्दा क्या है?
अमित: मेरा मतलब है कौन सा कलर?
बनवारी: कोई भी लगा देंगे. इसमे क्या है?
अमित: यही तो! तुम लोग मुझे पुछते नही हो. देखो सबसे बडा तोप कौन?
बनवारी: आप..
कुलभुषण: आप..
कल्लु: आप..
पांडु: ये लोग कहे रहे हैं तो आप ही होंगे!!
अमित: बिल्कुल सही! अब देखो अगर तुम अगर पीला रंग लगा रहे हो तो तुम्हे लाल लगाना चाहिए था.. और अगर लाल रंग लगा रहे हो तो भी तुम गलत हो क्योंकि तुम्हे पीला लगाना चाहिए था.
बनवारी: वाह क्या बात कही. मान गये उस्ताद!
अमित: वही तो! मेरे जैसे ज्ञान गुरू कि बात माननी चाहिए ना. देखो मै हर जगह टांग युँही थोडे ही अडाता रहता हुँ.
जितु: ये सही कहा भाई अमित.
अमित: अरे आप भी यँहा हैं? धत तेरे कि.
बनवारी: अच्छा गुरूजी.. रंग कौन सा लगाँए?
अमित: वेरी सिम्पल... लाल लगा दो.
पांडु: फिर तो हम गलत होंगे ना? हमे तो पीला लगाना चाहिए.
अमित: बहुत अच्छे.. दिमाग का इस्तेमाल करने लगे हो.. तो फिर पीला लगाओ.
कुलभुषण: तो भी तो गलत होंगे मेरे भाई.. फिर तो लाल लगाना चाहिए.
जितु: ये क्या पीला.. लाल.. पीला.. लाल.. लगा रहा है.. एक काम करो दोनों को मिक्स कर दो.. बसंती रंग बन जाएगा. बसंती को रंगो बसंती रंग से.
अमित: वाह भई वाह.. एकदम दुरूस्त. इसलिए तो ये हम गुरूओं के भी गुरू है.
मास्टर: (सिर पीटते हुए) अरे रंगेंगे तब ना जब हाथ ही में आएगी. अरे भाई कोई और है क्या?

”ये सब हमारे देश में ही क्यों होता है, भारतीय नारी के साथ ही क्यों? कभी सोचा है?”

ये कौन राष्ट्रवादी भाईसाहब आ गये? – कल्लु बोला.

मास्टर: अरे ये तो जोगलिखी वाले संजय बेंगाणी हैं.. आओ भाई आओ आपकी ही कमी थी.
अमित: आओ संजय, देखें क्या तीर मारते हो.
संजय: तीर मारना तो फिर भी आसान है अमित. पर तीर हम भारतीय ही क्यों मारते है. हम 2000 वर्ष गुलाम तीर मारकर नही रहे.
जितु: सही कहा. सही कहा. तीर मारते तो नही रहते.
बनवारी: क्या नही रहते? अरे बसंती को कैसे रंगे ये कहो ना?
संजय: बसंती से आपका क्या आशय है ये स्पष्ट करें?
मास्टर: (बाल नोचते हुए) मेरे भाई, बसंती एक महिला है, हमें उसे रंगना है. सात बरस से लगे है.. रंग नही पाए.
संजय: ये हमारी सरकार की गलती है. उसमे सोच नही है. आज हम कहाँ से कहाँ होते?
अमित: भई कहाँ होते?
जितु: वहाँ जँहा कोई नही होता.
कल्लु: अरे लेकिन सरकार कहाँ से आ गई. यार मास्टर मेरे सब्र की भी एक सीमा है. ये देशी लोगों से कुछ नही होगा. विदेशी कोच को बुलाओ.
मास्टर: उसका भी इंतजाम कर रखा है. ये देखो कौन आ रहा है?

”रंगना तो बसंती ही है पर जोमता नही है. वक्त है सोचा मैने रंगो उसे फिर कहाँ?”

“अहा अहा.. ग्रेग गोल्डिंग आ गये..” मास्टरजी खुश हो गये – “अब काम बन जाएगा.”
बनवारी: ओ ग्रेग भाई अब तुम ही खैवनहार हो.
ग्रेग: खैवता तो हुं पर रंग तो उसे वो बसंती ही है.
कुलभुषण: ये कौन सी हिन्दी है. अवध की लगती है.
मास्टर: ग्रेगजी, बसंती को रंगने का उपाय बताओ.
ग्रेग: रंगा तो जापान हुं, नमस्ते पुछो. पर फिर भी बसंती ही है रंग को.
पांडु: वाह वाह जापान की बात की, अब बात बन जाएगी.
कल्लु: मेरे तो कुछ समझ नही आ रहा है, ये क्या हो रहा है. और वो इतनी भीड कैसी आ रही है?
मास्टर: अरे बापरे ये तो ब्लोगरों की पुरी टोली एक साथ आ गयी. ये ई-स्वामी, प्रत्यक्षा, पंकज बेंगाणी, आलोक, रवि कामदार, रवि रतलामी, रजनीश मंगला और वो क्षितीज अरे जापानी मुत्सु भी हैं.

ई-स्वामी: हाय हाउ डु यु डु.
बनवारी: क्या डु यु डु.. अरे भाई हु तु तु कबड्डी नही खेलनी हमे.. बसंती कैसे रंगे ये बताओ.
आलोक: चिंता ना करो, हम युँ ही रंगवा देंगे.
प्रत्यक्षा: युँ ही तो रंग ही दोगे आप, पर ना भुलो नारी है. जगत तो दीवाना हुआ जाए ऐसी प्यारी है.
रवि कामदार: नही ऐसा नही है.
रजनीश: क्या नही है?
रवि कामदार: क्या मतलब क्या नही है.
रजनीश: आपने कहा ऐसा नही है, तो बताओ क्या है?
ई-स्वामी: अरे यार ये छोडो, देबु को बुलाया कि नही.
देबाशीश: मै आ गया दोस्तो. अब सारी समस्याएँ सुलझ जाएगी.
रवि रतलामी: लेकिन समस्या क्या है?
अमित: इजी है, बसंती को रंगना है बस.
आलोक: तो प्रोबल्म क्या है? रंग दो.
जितु: पर कैसे मेरे भाई? क्षितीज तुम बताओ.
क्षितीज: पहले बताओ बसंती का सेक्स क्या है?
जितु: फिर से सेक्स आ गया.
बनवारी: ये क्या हो रहा है?
रवि कामदार्: सेक्स की छोडो, ऐसा नही है.
ग्रेग: सेक्स तो था ही हुं, पर भारत मे सब ही तो कुछ छूट नही होगा.
देबु: अरे यार इसका मुँह बन्द रखो.
रवि कामदार: रंगने के बाद बसंती कितनी मस्त दिखेगी, एकदम करीना जैसी. उसकी फोटु खिंचवाओ.
अमित: उसमे क्या है, अपने इन-हाउस फोटोग्राफर हैं ना. पंकजभाई. इधर उधर की अनाप शनाप खींच लेते हैं और कहते हैं देखो क्या अदभूत है. और लोग उल्लु भी बन जाते है.
जितु: हा हा हा हा, ये सही कहा.
पंकज: तो उसमे भी अक्ल चाहिए अमित.
अमित: तो अक्ल का सही इस्तेमाल कर ना, खींचना है तो बसंती को खींच.
कल्लु: ए ए अस्लील बातें करता है ये... बसंती को कहाँ खींच रहे हो?
अमित: अबे फोटु यार.
पंकज: तो अब तुम बताओगे क्या खींचु क्या नही.
देबु: अब तुम दोनो फिर शुरू हो गये. चिट्ठाकार मे ब्लोक कर दुंगा.
रवि कामदार: नही ऐसा नहि है.
जितु: अरे यार मंगला तु बता.
रजनीश: de askho dek gekg sogg hii.
बनवारी: ये कौन सी भाषा है भाई?
रवि रतलामी: जर्मन लगती है.
प्रत्यक्षा: जर्मन हिन्दी भाई – भाई. दोनो मिलकर करो कमाई.
जितु: अरे हिन्दी मे बोल ना.
रजनीश: मुझे क्या पता, आप इतने धुरन्धर कुछ नही कर पाए. मै क्या करुंगा.
पंकज: छोडो छोडो... मेरा नया फोटोब्लोग देखा. कमेंट दो ना.
कुलभुषण: ये ब्लोग क्या है, हमारा तो पहला ब्लोक है घर का.
मास्टर: ब्लोक नही ब्लोग! ब्लोग.
पांडु: नही नही ब्लोग को नही रंगना है.. बसंती रंगनी है.
बनवारी: मै पागल हो जाउंगा. ये लोग मुझे पागल कर देंगे.
देबाशीष: इसके बारे मे मै विस्तार से लिखुंगा. बसंती को रंगने के उपाय. इस हफ्ते के स्वादिष्ट पुस्तचिह्न.
अमित: ये किसका मारा?
आलोक: लिखोगे तो पोस्ट कब करोगे? तब तक तो होली बीत जाएगी.
प्रत्यक्षा: और नारी ही क्यों रंगेगी. जितु को भी रंग दो.
पंकज: नही नही, जितुभाई पर कलर ज्यादा लगेगा, रवि कामदार को रंग दो. दो हड्डी का है.
आलोक: ही ही ही ही, रंग रंग दो मज़ा आएगा.
बनवारी: अरे बसंती रंगनी है.
जितु: ये क्या बसंती बसंती लगा रखी है. खाली पीली टाइम बरबाद किया मेरा.
अमित: ये खाली पीली सुना हुआ लगता है, फुरसतिया कहाँ है.
मुत्सु: नमस्ते. जापान में होंगे. रंग के डर से भागे होंगे.
ग्रेग: भागा तो हुँ दोस्तों, यहीं हुँ ना. बहुत है डर तो ही है. पर होली है तो क्यों है.
बनवारी: (बाल नोचते हुए): मास्टर .. मास्टर तेरे बच्चे चुस चुस के तेरा खुन पीए. कम्बखत किन लोगों को उठा लाया रे. किस जनम का बैर निकाला?
पांडु: अरे यार मुद्दे पर आओ ना! वैसे मुद्दा क्या है?
जितु: चलो अपने अभी धांसु आइडिया देते है. GPS से ट्रेक करो बसंती को.
अमित: GPS यानि Global Position Setting. देखा क्या दिमाग पाया है.
आलोक: Setting? System सुन रखा था हमने तो.
अमित: एक ही बात है ना.
पंकज: तो क्या. बसंती तो दिख ही जाएगी.
संजय: ठिक है रंग दो, पर भारत के भविष्य का सोचो.
बनवारी: ये भारत कौन है? बसंती का यार?
संजय: छी छी, देश पर स्वाभिमान नही. हमसे सिखो या जोगलिखी पढो.
अमित: क्या पढें, नेताओं के भाषण बहुत सुने हैं.
जितु: ही ही ही.... सही कहा. तभी मै कमेंट नही देता.
देबु: ये गलत बात है, सबको ब्लोक कर दुंगा.
मुत्सु: नमस्ते. पर ब्लोग को ब्लोक करोगे या ब्लोक पर ब्लोग करोगे.
प्रत्यक्षा: वाह वाह, सही कहा. अब कहो देबु?
देबु: नासमझों को कौन कहे.
ग्रेग: हमे ही नासमझ हुँ. पर ब्लोक तो करा ही तो आज क्या है?
पांडु: आज तो रविवार है.
कल्लु: अरे हम क्या कर रहे हैं.. बसंती तो निकल जाएगी.
जितु: बन्धु, आई कब थी जो निकल जाएगी.
रवि कामदार: नही ऐसा नही है.
रजनीश: कौन निकल रही है.
प्रत्यक्षा: जरा सम्भल के....अस्लील बात नहि.
अमित: अस्लील कहाँ है.... निकलेगी तो रंगेगी ही रंगेगी.
आलोक: मज़ा आ जाएगा.
प्रत्यक्षा: घर पर भाभी नही है क्या?
पंकज: बात क्या है... रंगने मे भाभी कहाँ से आ गई.
ग्रेग: क्या है बसंती ही भाभी होगी. जितु भाई है बसंती भाभी है.
देबु: ये मै क्या सुन रहा हुँ जितु?
अमित: मुझे तो पहले से ही शक था.
संजय: अरे रे... देश की इज्जत लूट गई कुवैत मे.
जितु: ये क्या अनाप शनाप बके जा रहे हो आप लोग. ग्रेग क्या बोलता है.. समझना पडता है. वो कह रहा है, बसंती भाभी है.
आलोक: वही तो, और भाई कौन है.
जितु: हम सब भाई भाई हैं.
बनवारी: हे राम, आज के युग में भी पांचाली.
पांडु: पांचाली नही बसंती रंगनी है.
कल्लु: ये क्या हो रहा है... मै पागल हो जाउंगा मास्टर.
रवि रतलामी:टोपिक इंटेरेस्टींग है. बसंती भाभी है, भाई को ढुंढो.
मुत्सु: नमस्ते. पर हमे तो रंगने की बात सोचनी है, भाई नही ढुंढना है.
आलोक: अरे यार बसंती को रंगो ना.
संजय: बसंती ही क्यों रंगी जाती है. इस देश की नारी ही सहन करती है.
प्रत्यक्षा: जीहाँ हमने बहुत सहा है.
मुत्सु: नमस्ते. सही कहा है. जापान मे भी हाल बेहाल है.
ग्रेग: हाल तो हुँ मै बेहाल. अमरीका भी कम तो नही ही है.
देबु: चलो कही और चलें.
अमित: कुवैत चले.
रजनीश: वाह वाह वही चलते है. जर्मनी मे भी मज़ा नही है.
जितु: आपका स्वागत है. चलो इन मोहल्ले वालो को भी ले चले.


हम सबने मुडकर देखा तो सब बेहोश हो चुके थे.

बुरा मत मानना भाई. होली है.

8.3.06

कल रात फिर धरा हिली थी

समय था रात के 11:53. मैं नींद की बाहों में समाया ही था कि मेरी पत्नी ने सारा मज़ा किरकिरा कर दिया. मुझे नींद से उठाकर कहने लगी “पावँ क्यों इतनी जोर जोर से हिला रहे हो.” अब मैं कहाँ पावँ हिला रहा था. मैने कहा “क्या यार क्यों डिस्टर्ब कर रही हो, पाँव कँहा हिला रहा हुँ” तब वो चौंकी. तो क्या ये भूकम्प आ रहा है? अब हडबडाने की बारी मेरी थी. सारी नींद एक बार में ही उड गई. मैं एक सेकंड में खडा हो गया. बीवी के साथ बेडरूम से बाहर दौडा, तब तक सब जाग चुके थे. धरती का हिलना बस बंद ही हुआ था.

मेरी अनुज बहन बोली, भूकम्प था ना? हाँ भई, भूकम्प ही था. चलो घर से बाहर चलें. नहीं, भाग नहीं रहे हैं, क्योंकि कुछ गिरना वगैरह होता तो अब तक हो चुका होता. पर क्या है कि नींद थोडे ही आएगी. घर से निकला तो पडोसी बोले “भूकम्प था ना?” हाँ जी, भूकम्प ही था, बोलो क्या करें? हम थोडा सीढीयों मे खडे हुए तो अचानक धडधड की आवाज़ आई. नहीं, फिर से भूकम्प नहीं आया था. वो तो पडोसन भागी थी. सरकार की नज़र क्यों नहीं पडी. वरना ओलम्पिक मे भेज देते तो, स्वर्ण पदक मिल जाता.

अब हम सोच रहे थे कि कोई कुशल मंगल का फोन क्यों नहीं आया. घर में जाकर फोन देखा तो डेड हो गया था, थोडी देर मे चालु भी हो गया था अलबत्ता. इतने मे डोरबेल बजी तो देखा, मामाजी खडे है, मामाजी क्या है दोस्त ही समझो. मुझसे सालभर ही तो बडा है. बोला “खैरियत से हैं ना, भूकम्प आया था ना?” अब हम क्या कहें, हाँ जी भूकम्प ही लगता था. आगे बोले “चलो”. मैने कहा – कहाँ? बोले - “सैर कर आते है” लो अब आधी रात को सैर! पर टाईम टाईम की बात है. भूकम्प क्या आया, लोगों को घुमने फिरने का – मटरगस्ती करने का बहाना मिल गया. वैसे भी हम गुजराती लोग घुमने फिरने के ज़रा शौकिन रहे है.

तो भई हम सडकों पर निकले तो देखा लोग-बाग दुपहिआ हो या चारपहिआ कुछ भी लिए बस घुमे जा रहे है. कोई कहे “अरे न्यूज़ लगाओ, कुछ आया क्या?” कोई कहे “ऐसे तो बहुत देखें हैं” कोई डरा हुआ, कोई डरकर भी तोप बना हुआ.

इस बीच किसी की चाँदी हुई तो वो थे पान गल्ले वाले. क्या रौनक हो गई वहाँ तो. महफील जमा हो गई. तरह तरह के कयास लगने लगे. “मै तो कहता ही था” “देखा नहीं शाम से मौसम कैसा हो गया था” “क्या हिला था यार”.

अब कई समझदार लोग भी पैदा हो गए. “मै तो कहता ही था. हाईराईज़ बिल्डिंग मे एपार्टमेंट लेना ही नहीं चाहिए, बंगला ही अच्छा.” “कोई कहे अरे कुछ नही यार, ऐसा रोज रोज नही होता” बस बहस शुरू.

रात दो बजे तक घर पहुँचा. थोडा डर कर ही सही, निंद तो लेनी ही पडी. आखिर सुबह आफिस जाना है.
फिर वही सुबह, फिर वही काम, फिर वही ओफिस, फिर वही भूकम्प..... ना ना यार शुभ शुभ बोलो.

(भूकम्प की तीव्रता 5.2 थी. कोई जानमाल का नुकशान नहीं)

6.3.06

नारदजी का अंग्रेजी प्रेम

वाह नारदजी. आज शाम अचानक आपकी मुलाकात ली तो भोंचका रह गया. अंग्रेजी ब्लोग की फीड देखकर. लगा की मुझसे ही कहीं भूल हो गई होगी. लेकिन फिर देखा खोली तो सही साइट ही है. पर यह क्या, नारदजी अंग्रेजी जमात के खैरख्वाह भी हो गये.

हा हा हा.....

5.3.06

तब और अब - हैरतअंगेज़ फर्क

इस तस्वीर में क्या खाश है?



एक आदमी साइकल पर कुछ ले जा रहा है. सामान्य सा लगने वाला यह दृश्य असामान्य घटना से जुडा हुआ है. ये आदमी अपने साथ जो ले जा रहा है, वो एक क्रांतिकारी कदम सिद्ध होने वाला था भारत के लिए. यह व्यक्ति एक महत्वपूर्ण रोकेट का अतिमहत्वपूर्ण भाग यानि "नोजल कोन" प्रक्षेपण स्थल तक ले जा रहा है. वो भी साइकल पर!!!!

यह चित्र 1963 का है. केरल का एक छोटा सा कस्बा थुम्बा. 21 नवम्बर को भारत ने वहाँ से अपना पहला रोकेट आकाश में छोड़ा था. जैसा कि आप देख ही रहे हैं, उदासीन सरकार की बदौलत कोई ढंग की यातायात सेवा भी उपलब्ध नहीं कराई गई थी और न ही अच्छा खाशा बजट मिला था देश के वैज्ञानिकों को. फिर भी उनकी मेहनत रंग लाई. उस दिन देश का पहला रोकेट अंतरीक्ष में गया था. जो दो व्यक्ति इस अभूतपूर्व घटना को मूर्तरूप देने के लिए जिम्मेदार कहे जा सकते हैं, वे डा. होमी भाभा एवं विक्रम साराभाई हैं.




डा. भाभा ने उस दिन कहा था कि पश्चिमी जगत जिस धरती पर खडा है, हम भी वहीं खडे है. फर्क सिर्फ इतना है कि वे हमसे 4-5 साल आगे हैं. लेकिन हम अगर युहीं मेहनत करते रहे तो 10 साल में उनकी बराबरी कर लेंगे.

अफसोस है कि हम बराबरी नहीं कर पाए. कई वजहें हो सकती है इसकी - हमारे संसाधन सिमित हैं, हमारा देश इतना खर्च अंतरीक्ष विज्ञान पर नहीं कर सकता. पर सबसे महत्वपूर्ण वजह तो यही रही है कि इस देश के निति निर्धारकों के पास ना तो वो सोच थी, ना ही उन्होनें इस और ध्यान दिया.

लेकिन फिर भी हमने प्रगति तो की. आज हम व्यवसायिक रूप से स्थापित हो चुके है. इसरो की बकायदा मार्केटींग कम्पनी (अंतरीक्ष कोर्पोरेशन) है. हम दुसरे देशों के उपग्रह भी छोडने लगे हैं. नीचे दी गई तस्वीर अत्याधुनीक GSLV की है. पहली तस्वीर और इस तस्वीर को देखने से ही पता चल जाता है कि हमने कितनी प्रगति कर ली है.




मुझे बहुत खुशी हुई जब राष्ट्रपति बुश ने अपने भारत यात्रा के दौरान कहा कि अब अमरीकी उपग्रह भी भारत से छोडे जा सकेंगे.

पर अभी भी काफी मंजिले और बाकी है. हमें काफी आगे जाना है.

मुझे उस दिन का इंतजार है जब भारत अपना दूरसंवेदी उपग्रह "चन्द्रयान - 1" छोडेगा. शायद अगले साल वो खुशनसीब दिन आ ही जाए.